Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीयः समुदेशः तदियत्ताऽनवधारणात् । न च भगवतः परमकारुणिकस्य चेष्टा तद्-व्यामोहाय प्रभवतीत्याशङ्कायामुच्यते
नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ॥६॥ सुगममेतत् । ननु बाह्यालोकाभावं विहाय तमसोऽन्यस्याभावात् साधनविकलो दृष्टान्त इति ? नवम्, एवं सति बाह्यालोकस्यापि तमोऽभावादन्यस्यासम्भवात्तेजोद्रव्यस्यासम्भव इति विस्तरेणैतदलङ्कारे प्रतिपादितं बोद्धव्यम् ।
अत्रैव साध्ये हेत्वन्तरमाहतदन्वय-व्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोण्डुकज्ञानवन्नक्तश्चर
ज्ञानवच्च ॥७॥ अत्र व्याप्तिः यद्यस्यान्वयव्यतिरेको नानुविदधाति, न तत्तत्कारणकम्, यथा इनके नहीं कहने से कारणों के साकल्य का संग्रह नहीं होने से व्यामोह ही होगा; क्योंकि ज्ञानोत्पत्ति के कारणों की संख्या का अवधारण नहीं होगा। अगवान् परम कारुणिक ग्रन्थकर्ता आचार्य की प्रवृत्ति शिष्यों के व्यामोह के लिए नहीं हो सकती, ऐसी आशङ्का होने पर कहते हैं ।
सूत्रार्थ-अर्थ और आलोक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कारण नहीं हैं। क्योंकि वे ज्ञेय हैं, जैसे-अन्धकार ।। ६ ।।
यह सूत्र सुगम है।
शङ्का-बाह्य आलोक के अभाव को छोड़कर अन्य कोई अन्धकार नहीं है, अतः आपका दृष्टान्त साधनविकल है।
समाधान-यह बात ठीक नहीं है। ऐसा होने पर बाह्य प्रकाश को भी अन्धकार का अभाव कह सकते हैं। इस प्रकार प्रकाश के असम्भव हो जाने से तेज़ोद्गव्य का मानना भो असम्भव हो जायगा। यह बात विस्तार से प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रतिपादित जाननी चाहिए।
इसी साध्य के विषय में दूसरा हेतु करते हैं
सत्रार्थ-धर्मी ज्ञान का कारण अर्थ और आलोक नहीं हैं; क्योंकि ज्ञान का अर्थ और आलोक के साथ अन्वय-व्यतिरेक रूप सम्बन्ध का • अभाव है। जैसे केश में होने वाले उण्डुक ( मच्छर ) ज्ञान के साथ तथा - नक्तंचर उलूक आदि को रात्रि में होने वाले ज्ञान के साथ ।। ७ ॥
अर्थ और आलोक ज्ञान के कारण नहीं हैं, इस विषय में व्याप्ति है. जो कार्य जिस कारण के साथ अन्वय और व्यतिरेक को धारण नहीं
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