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प्रमेयरत्नमालायां
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विरुद्धाश्चामी हेतवो दृष्टान्तानुग्रहेण सशरीरासर्वज्ञपूर्वकत्वसाधनात् । न धूमात्पावकानुमानेऽप्ययं दोषः, तत्र ताण-पार्णादिविशेषाधाराग्निमात्रव्याप्तधूमस्य दर्शनात । नैवमत्र सर्वज्ञासर्वज्ञकर्तृविशेषाधिकरणतत्सामान्येन कार्यत्वस्य व्याप्तिः, सर्वज्ञस्य कर्तुरतोऽनुमानात्प्रागसिद्धत्वात् । मन्निमित्तक हो जायेंगे, इस प्रकार इष्ट के विरुद्ध साध्य की सिद्धि करने पर विरुद्ध साधन दोष है। तथा विद्युत् आदि से व्यभिचार आता है।) कार्यत्व, सन्निवेश विशिष्टत्व और अचेतनोपादान रूप तीन हेतु विरुद्ध भी हैं, क्योंकि इनसे सशरोरी, असर्वज्ञ कर्ता की सिद्धि होती है।
(नैयायिक कहता है कि दृष्टान्त के सामर्थ्य से यदि ईश्वर का सशरीरपना और असर्वज्ञपना सिद्ध करते हो तो वैसा होने पर समस्त अनुमान का उच्छेद हो जायगा। इसी बात को स्पष्ट करते हैं-यह पर्वत अग्नि युक्त है, धुयें वाला होने से, रसोईघर के समान। यहाँ भी पर्वतादि में रसोई में देखी हुई खैर, पलाश आदि की अग्नि के सिद्ध होने पर इष्ट के विरुद्ध साधन होने से विरुद्ध साधन है। नैयायिक की इस शंका का परिहार करते हैं-)
धुयें से अग्नि के अनुमान में यह ( विरुद्ध रूप ) दोष नहीं है। धुयें से अग्नि के अनुमान में तृण सम्बन्धी तथा पत्ते सम्बन्धी आदि विशेष आधारों में रहने वाली अग्नि मात्र से व्याप्त धूम का वहाँ भी दर्शन होता है । पृथ्वी, अङ्कुरादि कर्ता से उत्पन्न हैं; क्योंकि कार्य हैं, इस अनुमान में सर्वज्ञ और असर्वज्ञ रूप जो कर्ता का विशेष, उसका आधार जो कर्तृत्व सामान्य उसके साथ कार्यत्व हेतु की व्याप्ति नहीं है तथा कर्तारूप सर्वज्ञ इस अनुमान से पहले असिद्ध है।
विशेष-जैसे हम जैनियों के धुयें से अग्नि के अनुमान में तृणादि की विशेष अग्नियों का अग्निमात्र आधार ग्रहण है, उसी प्रकार आपके मत में विशेषभूत सर्वज्ञ और असर्वज्ञ रूप आधारभूत सामान्य पुरुष का ग्रहण नहीं है, जिससे कार्यपने की व्याप्ति हो; क्योंकि तुम्हारे मत में सर्वज्ञ ही बुद्धिमान् है, सामान्य पुरुष नहीं। आपके में सर्वज्ञ साधक तनु आदि बुद्धिमन्निमित्तक हैं; क्योकि वे कार्य हैं, यही अनुमान है। वह इस समय विवादग्रस्त है, अतः उससे सर्वज्ञ सिद्धि नहीं होती है। सर्वज्ञ और असर्वज्ञ रूप विशेष अधिकरण सामान्य से कार्यत्व हेतु की व्याप्ति नहीं है। अग्नि वाला है । धुयें के कारण, यहाँ तृण और पर्ण आदि सम्बन्धी विशेष आधार वाली अग्नि सामान्य से धूम की व्याप्ति है हो, अतः यहाँ दोष नहीं है। १. कार्यत्वसन्निवेशविशिष्टत्वाचेतनोपादानत्वरूपास्त्रयो हेतवः ।
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