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प्रमेयरत्नमालायां धर्मियायेन न बहिः सदसत्त्वमपेक्षते इत्याभिधानादिति तन्निरासार्थमाह
प्रसिद्धो धर्मी ॥ २३ ॥ ____ अयमर्थः-नेयं विकल्पबुद्धिर्बहिरन्तर्वाऽनासादितालम्बनभावा धर्मिणं व्यवस्थापयति, तदवास्तवत्वेन तदाधारसाध्य-साधनयोरपि वास्तवत्त्वानुपपत्तेस्तबुधेः पारम्पर्येणापि वस्तुव्यवस्थानिबन्धनत्वायोगात् । ततो विकल्पनान्येन वा व्यवस्थापितः पर्वतादिविषयभावं भजन्नेव धर्मितां प्रतिपद्यत इति स्थितं प्रसिद्धो धर्मीति । तत्प्रसिद्धिश्च क्वचिद्विकल्पतः क्वचित्प्रमाणतः क्वचिच्चोभयत इति नैकान्तेन विकल्पारूढस्य प्रमाणप्रसिद्धस्य वा धमित्वम् ।
ननु धर्मिणो विकल्पात्प्रतिपत्ती किं तत्र साध्यमित्याशङ्कायामाहविकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये ॥ २४ ॥
है, वह बाह्य सत् या असत् की अपेक्षा नहीं करता है, ऐसा कहा गया है।
उपर्युक्त मत के निराकरण के लिए कहते हैंसत्रार्थ-धर्मी प्रसिद्ध होता है ॥ २३ ॥
इसका अर्थ यह है-विषयभाव को प्राप्त किए बिना यह विकल्पबुद्धि धर्मी को व्यवस्थापित नहीं करती है क्योंकि उस धर्मी के अवास्तविक होने से, उसके आधारभूत साध्य और साधन के भी वास्तविकता नहीं बन सकती है, इसलिए अनुमान बुद्धि के परम्परा से ( धूम सामान्य से अग्नि सामान्य, उससे धूम विकल्प, उससे अग्नि का विकल्प, अनन्तर धूम स्वलक्षण, उससे अग्नि स्वलक्षण का निश्चय होता है, इस प्रकार परम्परा से वस्तु व्यवस्था के कारणपने का अयोग है। अनन्तर विकल्पबुद्धि से अथवा अन्य प्रमाण से निर्णीत पर्वतादिविषय भावको स्वीकार करते हुए ही धर्मीपने को प्राप्त हो सकता है, इस प्रकार यह बात सिद्ध हुई कि धर्मी प्रसिद्ध होता है। उसकी प्रसिद्धि कहीं विकल्प से, कहीं प्रमाण, कहीं विकल्प और प्रमाण से होती है । इस प्रकार यह कोई एकान्त नहीं है कि केवल विकल्प से गृहीत अथवा प्रमाण से प्रसिद्ध पदार्थ के धर्मीपना हो।
भाट्ट-धर्मी की विकल्प से प्रतिपत्ति मानने पर वहाँ साध्य क्या है ? भाट्ट की ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ-उस विकल्प सिद्ध धर्मी में सत्ता और असत्ता ये दोनों ही साध्य हैं ॥ २४ ॥
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