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तृतीयः समुद्देशः ज्ञानरूपयोपलम्भसम्भवात् । तस्य स्वरूपमवास्तवाकारस्तस्यानुपलब्धिः।
ननु च व्यापकविरुद्धकार्यादीनां परम्परयाऽविरोधिकार्यादिलिङ्गानां च बहलमुपलम्भसम्भवात्तान्यपि किमिति नाचार्यैरुदाहृतानीत्याशङ्कायामाह
परम्परया सम्भवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ॥ ८६ ॥ अत्रैवैतेषु कार्यादिष्वित्यर्थः । तस्यैव साधनोस्योपलक्षणार्थमुदाहरणद्वयं प्रदर्शयति
अभूदत्र चके शिवकः स्थासात् ॥ ८७ ॥ एतच्च किंसञ्जिकं क्वान्तर्भवतीत्यारेकायामाह
___ कार्यकार्यमविरुद्ध कार्योपलब्धौ ॥ ८८ ॥ अन्तर्भावनीयमिति सम्बन्ध ः। शिवकस्य हि कार्य छत्रकम्, तस्य कार्य स्थास इति ।
एकान्त पदार्थ को विषय करने वाला विज्ञान; क्योंकि मिथ्याज्ञान के रूप से उसकी उपलब्धि संभव है। नित्यादि एकान्त का स्वरूप अवास्तविक है, अतः उसकी अनुपलब्धि है। __शंका-व्यापक विरुद्ध कार्यादि हेतु और परम्परा से अविरोधी कार्यादि हेतुओं का पाया जाना बहुलता से सम्भव है। उनके उदाहरण आचार्यों ने क्यों नहीं दिए ?
समाधान--इस प्रकार की शङ्का होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ-परम्परा से जो साधनरूप हेतु सम्भव हैं, उनका इन दो ही हेतुओं में अन्तर्भाव कर लेना चाहिए ॥ ८६ ।।
सूत्र में आए हुए 'अत्रैव' का तात्पर्य है-यहीं कार्यादि में । उसी साधन के उपलक्षण के लिए दो उदाहरण दिखलाते हैं
सूत्रार्थ-इस चक्र पर शिवक हो गया है; क्योंकि स्थास पाया जा रहा है ॥ ८७॥
इस हेतु की क्या संज्ञा है और इसका अन्तर्भाव कहाँ होता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ कार्य के कार्य रूप उक्त हेतु का अविरुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव करना चाहिए ॥ ८८॥
यहाँ 'अन्तर्भावनीयम्' पद जोड़ लेना चाहिए। शिवक का कार्य क्षत्रक है और उसका कार्य स्थास है।
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