Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीयः समुदेशः
१३५ पभिन्नदेशतया तथैव सर्वात्मनोपलभ्यमानत्वात्, घटादिवत् । न सामान्येन व्यभिचारः, तस्यापि सदृशपरिणामात्मकस्यानेकत्वात् । नापि पर्वताद्यनेकप्रदेशस्थतया युगपदनेकदेशस्थितपुरुषपरिदृश्यमानेन चन्द्रार्कादिना व्यभिचारः, तस्यातिदविष्ठतयैकदेशस्थितस्यापि भ्रान्तिवशादनेकदेशस्थत्वेन प्रतीतेः । न चाभ्रान्तस्य भ्रान्तेन व्यभिचारकल्पना युक्तेति । नापि जलपात्रप्रतिबिम्बेन, तस्यापि चन्द्रार्कादिसन्निधिमपेक्ष्य तथापरिणममानस्यानेकत्वात् । तस्मादनेकप्रदेशे युगपत्सर्वात्मनोपलभ्यमानविषयस्यैकस्यासम्भाव्यमानत्वात्तत्र प्रवर्तमानं प्रत्यभिज्ञानं न प्रमाणमिति स्थितम् ।
तथा नित्यत्वमपि न प्रत्यभिज्ञानेन निश्चीयत इति । नित्यत्वं हि एकस्यानेकक्षणव्यापित्वम् । तच्चान्तराले सत्तानुपलम्भन न शक्यते निश्चेतुम् । न च प्रत्यभिज्ञानबलेनैवान्तराले सत्तासम्भवः, तस्य सादृश्यादपि सम्भवाविरोधात् । न च कि एक ही घड़ा प्रत्यक्ष से एकदेश में उपलभ्य होने पर वही अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है, इसी प्रकार का वर्ण भी है, इस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाण से विरोध आता है। प्रयोग इस प्रकार है
गकार आदि प्रत्येक वर्ण अनेक ही हैं; क्योंकि एक साथ भिन्नभिन्न देशों में प्रत्येक वर्ण अपने पूर्ण रूप से पाया जाता है, जैसे घटादि । सामान्य एक होते हुए भी अनेकत्र प्रतीति में आता है, अतः उससे उक्त हेतु में व्यभिचार आता है, ऐसा भी नहीं कह सकते; क्योंकि सदृश परिणामात्मक वह सामान्य भी अनेक प्रकार का होता है। पर्वतादि अनेक प्रदेश स्थित रूप से एक साथ अनेक देशस्थ पुरुषों के द्वारा दिखाई देने वाले एक चन्द्र या सूर्य आदि से हेतु में व्यभिचार आता है, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चन्द्र सूर्यादि के अति दूरवर्ती होने से एक देशस्थ भी चन्द्र-सूर्यादि को भ्रान्ति के वश अनेक देशस्थ रूप से प्रतीति होती है। अभ्रान्त की भ्रान्त से व्यभिचार कल्पना करना युक्त नहीं है। और न जल से भरे हुए पात्र में दिखाई देने वाले चन्द्र सूर्यादि के प्रतिबिम्ब से व्यभिचार आता है। क्योंकि चन्द्र सूर्यादि के सामीप्य की अपेक्षा कर जल के तथारूप से परिणत उस प्रतिबिम्ब के भी अनेकता है। इसलिए अनेक प्रदेश में एक साथ सर्वात्म रूप से उपलब्ध होने वाले गकारादि का एक होना असम्भव है, अतः उसके व्यापित्व में प्रवर्तमान प्रत्यभिज्ञान प्रमाण नहीं है, यह सिद्ध हुआ।
नित्यता का निश्चय भी प्रत्यभिज्ञान से नहीं होता है। एक वस्तु का अनेकक्षणव्यापी होना नित्यता है। वह अन्तराल में सत्ता के न पाए जाने से निश्चय नहीं की जा सकती है। और प्रत्यभिज्ञान के बल से
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