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तृतीयः समुद्देशः
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रूपो गोशब्दाभिधेयस्तदाऽपोहः शब्दार्थ इति विघटेत । तस्मादपोहस्यो क्तयुक्त्या विचार्यमाणस्यायोगान्नान्यापोहः शब्दार्थ इति स्थितम् -'सहजयोग्यतासङ्केतवशाच्छन्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः' इति ।
स्मृतिरनुपहतेयं प्रत्यभिज्ञानवज्ञा, प्रमितिनिरतचिन्ता लैङ्गिकं सङ्गतार्थम् ।
प्रवचनमनवद्यं निश्चितं देववाचा
रचितमुचितवाग्भिस्तथ्यमेतेन गीतम् ॥ ९ ॥ इति परीक्षामुखस्य लघुवृत्तौ परोक्षप्रपञ्चस्तृतीयः समुद्देशः ।
कहने पर गो शब्द का वाच्य विधि रूप अन्य ही हैं, जो कि अगो को निवृत्ति रूप नहीं है, तब तो शब्द का वाच्य अपोह है, यह धारणा विघटित हो जाती है । इस प्रकार उक्त युक्ति से विचारा गया अपोह सिद्ध नहीं होता, इसलिए अन्य का अपोह शब्द का अर्थ नहीं है, यह स्थित हुआ । गो आदि शब्द अपनी सहज योग्यता और पुरुष के सङ्केत के वश वस्तु का ज्ञान कराने में कारण हैं ।
श्लोकार्थ - अतः सिद्ध हुआ कि स्मृति निर्दोष है, प्रत्यभिज्ञान अवज्ञा करने योग्य नहीं है, तर्क प्रमिति का ज्ञान कराने में निरत है, लैङ्गिक अनुमान सङ्गत अर्थ वाला है और प्रवचन निर्दोष है, यह बात अकलङ्कदेव को वाणी से माणिक्यनन्दि ने निश्चित की । तथा उचित वाणी से उन्होंने ( सूत्र रूप ) रचा तथा मुझ अनन्तवीर्यं ने यह तथ्य गाया ||९||
इस प्रकार परीक्षामुख की लघुवृत्ति में परोक्ष प्रमाण का विवेचन करने वाला तृतीय समुद्देश समाप्त हुआ ।
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