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प्रमेयरत्नमालायां
स्वलक्षणरूपस्तस्य सकलविकल्पवाग्गोचरातिक्रान्तत्वात् । नापि शाबलेयादिव्यक्ति रूपः, तस्यासामान्यत्वप्रसङ्गात् । तस्मात् सकलगोव्यक्तिष्वनुवृत्तप्रत्ययजनकं तत्रव प्रत्येक परिसमाप्त्या वर्तमानं सामान्यमेव गोशब्दवाच्यम् । तस्यापोह इति नामकरणे नाममात्र भिद्यत, नार्थत इति, अतो नाद्यः पक्षः श्रेयान् । नापि द्वितीयः; गोशब्दादेः क्वचिद्वाह्यऽर्थे प्रवृत्त्ययोगात् । तुच्छाभावाभ्युपगमे परमतप्रवेशानुषङ्गाच्च।
किञ्च-गवादयो ये सामान्यशब्दा ये च शाबलेयादयस्तेषां भवदभिप्रायेण पर्यायता स्यात्; अर्थभेदाभावाद् वृक्षपादपादिशब्दवत् । न खलु तुच्छाभावस्य भेदो युक्तः; वस्तुन्येव संसृष्टत्वैकत्वनानात्वादिविकल्पानां प्रतीतेः । भेदे वा
भावान्तर से गोपने से व्यवस्थित होता है। यह अश्वादिनिवृत्ति लक्षणभाव कौन कहा जाता है ? ( तात्पर्य यह कि गोपिण्ड रूप पदार्थ हो पदार्थ है । अगो शब्द से महिषादि का अभाव नहीं कहा जाता है, अपितु गौ ही कहा जाता है)। स्वलक्षण तो पदार्थ माना नहीं जा सकता, क्योंकि वह समस्त विकल्प रूप वचनों का विषय होने से वचन अगोचर है। शाबलेय आदि व्यक्ति रूप गोपदार्थ भी अपोह का विषय नहीं माना जा सकता है अन्यथा अपोह के असामान्यपने ( विशेषपने ) का प्रसंग प्राप्त होता है। अतः समस्त गो व्यक्तियों में अनुवृत्ति प्रत्यय का जनक और उन्हीं में एक एक व्यक्ति के प्रति पूर्ण रूप से वर्तमान गोत्व सामान्य को ही गो शब्द का वाच्य मानना चाहिए । उसका 'अपोह', यह नाम करने पर नाम मात्र का ही भेद रहेगा, अर्थ से कोई भेद नहीं रहेगा। अतः (पर्युदास रूप ) प्रथम पक्ष श्रेयस्कर नहीं है। प्रसज्य रूप द्वितीय पक्ष भी ठोक नहीं है, क्योंकि गो शब्द की किसी बाहिरी पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रसज्य रूप अपोह को तुच्छाभाव रूप मानने पर परमत ( नैयायिक मत ) में प्रवेश का प्रसंग आ जायगा।
दूसरा दोष यह भी है कि गो आदि जो सामान्य शब्द हैं, और शाबलेय आदि जो विशेष शब्द हैं, वे आपके अभिप्राय से एक अर्थ के वाची हो जायँगे। (द्रव्य, गुण, क्रिया रूप भेद होता है। शाबलेयत्व गुण है, उससे भेद होता है, इस प्रकार का लोक व्यवहार है, परन्तु आपके अभिप्राय से तुच्छ अभाव भेद नष्ट ही है); क्योंकि वृक्ष, पादप आदि शब्द के समान अर्थ में भेद नहीं रहेगा। तुच्छ अभाव ( निःस्वभाव रूप अपोह) का भेद युक्त नहीं है ( आपके मत में प्रसज्य निषेध के अङ्गीकार करने से वस्तु
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