Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां त्करस्य हेत्वाभासस्य निरूपणावसरे स्वयमेव ग्रन्थकारः प्रपञ्चयिष्यतीत्युपरम्यते ।
तत्रासिद्धपदं प्रतिवाद्यपेक्षयैव, इष्टपदं तु वाद्यपेक्षयेति विशेषमुपदर्शयि•तुमाह
न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥ १९ ॥ अयमर्थः-न हि सर्वं सर्वापेक्षया विशेषणम्, अपि तु किंचित् कमप्युद्दिश्य • भवतीति । असिद्धवदिति व्यतिरेकमुखेनोदाहरणम् । यथा-असिद्धं प्रतिवाद्यपेक्षया, न तथेष्टमित्यर्थः । कुत एतदित्याह
प्रत्यायनाय होच्छा वक्तुरेव ॥ २० ॥ इच्छायाः खलु विषयीकृतमिष्टमुच्यते । प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेवेति ।
अकिञ्चित्कर हेत्वाभास के निरूपण के अवसर पर स्वयं ही ग्रन्थकार विस्तार से कहेंगे, अतः विराम लेते हैं।
तीनों के मध्य में असिद्ध पद प्रतिवादी की अपेक्षा ही ग्रहण किया है, इष्ट पद वादी की अपेक्षा ग्रहण किया है, ऐसा भेद प्रदर्शित करने के लिए . कहते हैं
__ सूत्रार्थ-असिद्ध के समान इष्ट विशेषण प्रतिवादी की अपेक्षा से नहीं है ॥ १९ ॥
यह अर्थ है-सभी विशेषण सभी की अपेक्षा से नहीं होते हैं, अपितु कोई विशेषण किसी की अपेक्षा होता है और कोई किसी की अपेक्षा होता हैं अर्थात् कोई विशेषण वादी की अपेक्षा होता है, कोई प्रतिवादी की अपेक्षा से होता है । 'असिद्ध के समान' यह व्यतिरेक मुख से उदाहरण दिया गया है। जैसे असिद्ध विशेषण प्रतिवादी की अपेक्षा कहा गया, वह उस प्रकार से इष्ट नहीं है अर्थात् असिद्ध विशेषण वादी की अपेक्षा कहा गया है।
यह कैसे ? इसके विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-दूसरे को प्रतिबोधित करने के लिए इच्छा वक्ता की ही होती है ॥ २० ॥
इच्छा का विषयभूत पदार्थ इष्ट कहलाता है। दूसरों को प्रतिबोधित • करने की इच्छा वक्ता की ही होती है। .
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