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प्रमेयरत्नमालायां
अत्राह सौगतः - विधिसाधनं द्विविधमेव, स्वभाव - कार्यभेदात् । कारणस्य तु कार्याविनाभावाभावादलिङ्गत्वम् । नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्तीति वचनात् । अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य कार्यम्प्रति गमकत्वमित्यपि नोत्तरम्; सामर्थ्यस्या - तीन्द्रियतया विद्यमानस्यापि निश्चेतुमशक्यत्वादिति । तदसमीक्षिताभिधानमिति दर्शयितुमाह
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रसादेकसामय्यनुमानेन
रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्ध - कारणान्तरावैकल्ये ॥५६
आस्वाद्यमानाद्धि रसात्तज्जनिका सामग्र्यनुमीयते । ततो रूपानुमानं भवति । प्राक्तनो हि रूपक्षणः सजातीयं रूपक्षणान्तरं कार्यं कुर्वन्नेव विजातीयं रसलक्षणं कार्यं करोतीति रूपानुमान मिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुः प्राक्तनस्य रूपलक्षणस्य सजातीयरूपक्षणान्तराव्यभिचारात् । अन्यथा रससमानकालरूपप्रति
बौद्ध - विधिसाधक हेतु दो प्रकार का है-स्वभावहेतु और कार्य हेतु । कारण का कार्य के साथ अविनाभाव का अभाव होने से उसे हेतु नहीं माना जा सकता । कारण कार्य वाले अवश्य हों, ऐसा नहीं है, इस प्रकार का वचन है ।
जैन - मणि- मन्त्रादि से जिसकी सामर्थ्य रोकी गई है, ऐसा कारण कार्य के प्रति गमक होता है ।
बौद्ध - यह कोई उत्तर नहीं है । सामर्थ्य अतीन्द्रिय ( अप्रत्यक्ष ) है, अतः विद्यमान होने का भी निश्चय करना सम्भव नहीं है । पूर्वोक्त कथन असमीक्षित कथन है, यह दिखलाने के लिए कहते हैं
सूत्रार्थं -- रस से एक सामग्री के अनुमान द्वारा रूप का अनुमान स्वीकार करने वाले बौद्धों ने कोई विशिष्ट कारण रूप हेतु माना ही है, जिसमें सामर्थ्य की रुकावट नहीं है और दूसरे कारणों की विकलता नहीं है ॥ ५६ ॥
आस्वाद्यमान रससे उसकी उत्पादक सामग्री का अनुमान किया जाता है उससे रूप का अनुमान होता है । पहले का रूपक्षण सजातीय अन्य रूपक्षण रूप कार्य को उत्पन्न करता हुआ हो विजातीय रस लक्षण कार्य को करता है, इस प्रकार से रूप के अनुमान की इच्छा करने वाले बौद्धों को कोई कारण रूप हेतु इष्ट ही है; क्योंकि पूर्वकाल के रूप क्षण का सजातीय अन्य रूप क्षण के साथ कोई व्यभिचार नहीं पाया जाता है । अन्यथा रस के समकाल में ही रूप की जानकारी नहीं हो सकती थी ।
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