Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां
महाभूतनि श्वसिताभिधानं च गगनारविन्दमकरन्दव्यावर्णनवदनवधेयार्थविषयत्वा. दुपेक्षामर्हति । यच्चागमः 'सर्व वै खल्विदं ब्रह्मत्यादि' 'ऊर्णनाभ इत्यादि' च; तत्सर्वमुक्तविधिनाऽद्वैतविरोधोति नावकाशं लभते । न चापौरुषेय आगमोऽस्तीत्यने प्रपञ्चयिष्यते । तस्मान्न पुरुषोत्तमोऽपि विचारणां प्राञ्चति ।
प्रत्यक्षतरभेदभिन्नममलं मानं द्विधवोदितम् , देवेर्दीप्त गुणैविचार्य विधिवत्सङ्ख्याततेः सङ्ग्रहात् ।। मानानामिति तद्दिगप्यभिहितं श्रीरत्ननन्द्यावयस्तद्वयाख्यानमदो विशुद्धधिषण बर्बोधव्यमव्याहतम् ॥ ७ ॥
मुख्य-संव्यवहाराभ्यां प्रत्यक्षमुपदर्शितम् । देवोक्तमुपजीवद्भिः सूरिभिर्जापितं मया ।। ८॥
इति परीक्षामुखस्य लघुवृत्ती द्वितीयः समुद्देशः ॥ २ ॥ अवस्था का प्रतिपादन करना, परमपुरुष नाम वाले महाभूत के निःश्वास का कथन करना आकाश कमल के मकरन्द की सुगन्ध के वर्णन करने के समान उपेक्षा के योग्य है ।
जो आपने 'यह सब ब्रह्म है', मकड़ो जैसे जाला बुनती है, इत्यादि आगम प्रमाण दिए हैं, वे सब प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव रूप उक्त विधि से अद्वैत के विरोधो होने से अवकाश को प्राप्त नहीं करते हैं। अपौरुषेय आगम भी नहीं है, इस बात का हम आगे विस्तार से वर्णन करेंगे। इसलिए पुरुषोत्तम भी विचारणा पर नहीं ठहरता है।
श्लोकार्थ-गुणों से दीप्त श्रीमद्भट्ट अकलङ्कदेव ने विधिवत् विचार कर प्रमाण की संख्याओं के समह का संग्रह कर प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो भेद रूप निर्दोष प्रमाण का कथन किया है। उसी का दिङमात्र (कुछ) वर्णन श्री रत्तनन्दि ( माणिक्यनन्दि ) आचार्य ने ( परीक्षामुख ग्रन्थ में ) किया है। उसका यह मुझ अनन्तवीर्य ने व्याख्यान किया है। विशद्ध बुद्धि वालों को उसे निर्दोष रूप से जानना चाहिए ॥ ७॥
श्लोकार्थ-मुख्य और सांव्यवहारिक भेद से प्रत्यक्ष का वर्णन श्री अकलंकदेव ने किया । उसी को सूरि (माणिक्यनन्दि ) ने स्वीकार किया। उसकी मुझ अनन्तवीर्य ने व्याख्या की ।। ८ ।।
इस प्रकार परीक्षामुख की लघुवृत्ति में द्वितीय समुद्देश समाप्त हुआ।
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