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द्वितीयः समुद्देशः
७३ कारणव्यापारानुविधायित्वं च कारणमात्रापेक्षया यदीष्यते तदा विरुद्ध साध. नम् । कारणविशेषापेक्षया चेदितरेतराश्रयत्वम् - सिद्धे हि कारणविशषे बुद्धिमति तदपेक्षया कारणव्यापारानुविधायित्वं कार्यत्वम्। ततस्तद्विशेषसिद्धिरिति ।
सन्निवेशविशिष्टत्वमचेतनोपादानत्वं चोक्तदोषदुष्टत्वान्न पृथक् चिन्त्यते; स्वरूपभागासिद्धत्वादेस्तत्रापि सुलभत्वात् ।
ऐसे भी पुरुष के कृतबुद्ध्युत्पादकत्व नहीं बनता है। बिना संकेत ग्रहण किये कृतबुद्धि का उत्पन्न होना असिद्ध है ( यह घट है, पट नहीं है, इस प्रकार की विप्रतिपत्ति है परन्तु अगहीत संकेत वाले की उस प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं है ) । निःसन्देहपने का भी प्रसंग उपस्थित होता है। यदि कृतसंकेत के जैसे कृतबुद्धि सम्भव है, उस प्रकार अकृतसंकेत के भी कृतबुद्धि सम्भव हो तो फिर किसी प्रकार का विवाद ही न हो। चूंकि विवाद है अतः विवाद नहीं होने का प्रसंग दोष युक्त है।
कारणव्यापारानुविधायित्व ( कारण के व्यापार के अनुसार कार्य होना ) यदि कारण की अपेक्षा से इष्ट है तो साधन विरुद्ध है। ( क्योंकि विपक्षीभूत अबुद्धिमन्निमित्तक वस्तु वर्तमान है । ईश्वर नामक इष्ट विशेष कारण की सिद्धि न होने से विरुद्ध साधन है)। यदि कारण विशेष को अपेक्षा व्यापारानुविधायित्व कहें तो इतरेतराश्रय दोष आता है । बुद्धिमान कारण विशेष के सिद्ध होने पर उसकी अपेक्षा कारणव्यापारानुविधायित्व रूप कार्यत्व सिद्ध हो, तब उसकी अपेक्षा से कारणविशेष बुद्धिमद्धेतुकत्व की सिद्धि हो।
सन्निवेशविशिष्टत्व और अचेतनोपादानत्व ये दोनों उपर्युक्त दोष से दूषित हैं, अतः उनका पृथक् विचार नहीं किया जाता है, क्योंकि उनमें भी भागासिद्धत्व आदि दोष सुलभ हैं। सुखादि से भागासिद्धत्व-सुखादि में रचनाविशेषत्व नहीं है, कार्यत्व है। बुद्धि मन्निमित्तत्व भी 'अंकुरादिक किसी कर्ता सहित हैं अर्थात् कर्ता के द्वारा बनाए गए हैं, क्योंकि उनका उपादान अचेतन है। यहाँ पर चेतनोपादन के ज्ञान कार्य में प्रवृत्त न होने से अचेतनोपादान रूप हेतू के भागासिद्धपना है। कहीं पर ज्ञान लक्षण रूप कार्य में सचेतन उपादान होने से भागासिद्धपना है।
(शरीरादि बुद्धिमन्निमित्तक हैं; क्योंकि कार्य हैं। जैसे-घट। यहाँ पर जैसे घड़ा बुद्धिमान् कुम्भकार के द्वारा बनाया गया है। वह कुम्भकार भी सशरीरी और असर्वज्ञ है। उसी प्रकार समस्त कार्यों का कारण नियत है। दृष्टान्त के सामर्थ्य से तनु आदि कार्य भी सशरीर, असर्वज्ञ त्रुद्धि
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