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प्रमेयरत्नमालायां सर्वज्ञज्ञानस्यातीन्द्रियत्वादशुच्यादिदर्शनं तद्रसास्वादनदोषोऽपि परिहृत एव । कथमतीन्द्रियज्ञानस्य वैशद्यमिति चेत्-यथा सत्यस्वप्नज्ञानस्य भावनाज्ञानस्य चेति । दृश्यते हि भावनाबलादतद्देशवस्तुनोऽपि विशददर्शन मिति ।
पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रदुर्भेद्ये ।
मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम् ।। ७ ।। इति बहुलमुपलम्भात् ।
ननु च नावरणविश्लेषादशेषज्ञत्वम्; अपि तु तनुकरणभुवनादिनिमित्तत्वेन । न चात्र तन्वादोनां बुद्धिमद्ध'तुकत्वमसिद्धम्; अनुमानादेस्तस्य सुप्रसिद्धत्वात् । तथाहि-विमत्यधिकरणभावापन्न' उर्वीपर्वततरुतन्वादिकं बुद्धिमद्धतुकम्, कार्यत्वादचेतनोपादानत्वात्सन्निवेश विशिष्टत्वाद्वा वस्त्रादिवदिति । का प्रसङ्ग उपस्थित होता है । अतः सिद्ध हुआ कि अतीन्द्रिय और सम्पूर्ण रूप से विशद ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष है।
सर्वज्ञ ज्ञान के अतीन्द्रिय होने से अशुचि आदि दर्शन तथा अशुचि पदार्थों के रस के आस्वादनका दोष भी निराकृत हो गया । ( इन्द्रिय ज्ञान के ही अशच्यादि रसास्वादन का दोष है, अतीन्द्रिय ज्ञान के नहीं)। अतीन्द्रियज्ञान के वैशद्य कैसे है ? यदि ऐसा कोई प्रश्न करे तो उसका उत्तर यह है कि जैसे सत्य स्वप्नज्ञान के और भावनाज्ञान के सम्भव है। देखा जाता है कि भावना के बल से भिन्न देशवर्ती भी विशद दर्शन पाया जाता है।
श्लोकार्थ-कारागार का द्वार बन्द है और अन्धकार सुई के अग्रभाग से भी नहीं भेदा जा सकता है, मैंने अपने नेत्र बन्द किए हुए हैं, फिर भी कान्ता का मुख व्यक्त है ।। ७ ।।।
इस प्रकार इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध का अभाव होने पर भी विशदता की प्राप्ति होती है।
योग-आवरणों के अलग होने से सर्वज्ञता नहीं होती है, अपितु शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदि के निमित्त से सर्वज्ञता होती है। यहाँ पर शरीर आदि का बुद्धिमान् पुरुष के निमित्त से होना असिद्ध नहीं है; क्योंकि अनुमानादि प्रमाणों से उसका होना सुप्रसिद्ध है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं-विवाद के विषयभूत पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष, शरीरादि बुद्धि मद्धेतुक हैं; क्योंकि वे कार्य हैं। क्योंकि उनका उपादान अचेतन है; क्योंकि वस्त्रादि के समान उनकी रचना विशेष है। आगम भी उस बुद्धिमान् पुरुष का १. विविधा मतयो विमतयः, विमतीनामधिकरणं तस्य भावमापन्नं प्राप्तं विम__त्यधिकरणभावापन्नम्, विवादापन्नमित्यर्थः ।
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