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द्वितीयः समुद्देशः स्वाभ्यनुज्ञानात्', समवायस्य च परैर्द्रव्यादिपञ्चपदार्थवृत्तित्वाभ्युपगमात् ।
__ अथाभावपरित्यागेन भावस्यैव विवादाध्यासितस्य पक्षीकरणान्नायं दोषः प्रवेशभागिति चेत्तहि मुक्यर्थिनां तदर्थमीश्वराराधनमनर्थकमेव स्यात्, तत्र तस्याकिञ्चित्करत्वात् । सत्तासमवायस्य विचारमधिरोहतः शतधा विशोर्यमाणत्वात् स्वरूपासिद्धं च कार्यत्वम् । स हि समुत्पन्नानां भवेदुत्पद्यमानानां वा ? यद्युत्पन्नानाम्; सतामसतां [वा] ? न तावदसताम्, खरविषाणादेरपि तत्प्रसङ्गात् । सतां चेत् सत्तासमवायात् स्वतो वा ? न तावत्सत्तासमवायात्, अनवस्थाप्रसङ्गात्, प्रागुक्तविकल्पढयानतिवृत्तेः । स्वतः सतां तु सत्तासमवायानार्थक्यम् । __ अथोत्पद्यमानानां सत्तासम्बन्ध-निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वाभ्युपगमादिति मतम,
का कर्मक्षय प्रध्वंसाभाव रूप है अतः उसके साथ सत्ता और समवाय का अभाव है । आप लोगों ने सत्ता को द्रव्य, गुण और क्रिया का आधार माना है तथा समवाय को द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पाँच पदार्थों में रहने वाला माना है ।
यौग-अभाव का परित्याग कर विवाद को प्राप्त भाव को ही पक्ष बताने से यह दोष नहीं है।
जैन-मोक्ष के चाहने वालों का ऐसी स्थिति में मोक्ष के लिए ईश्वर की आराधना करना निरर्थक होगा; क्योंकि मोक्ष को चाहने वाले के समस्त कर्मों का क्षय होने पर ईश्वर की आराधना निरर्थक होगी। सत्ता समवाय रूप हेतु को विचार श्रेणी पर चढ़ाने से वह सैकड़ों रूपों में छिन्नभिन्न हो जाता है, अतः कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है। सत्ता समवाय उत्पन्न हुए पदार्थों के है अथवा उत्पद्यमान पदार्थों के है ? यदि उत्पन्न हेतु पदार्थों के है तो वे पदार्थ सत् हैं या असत् ? यदि समुत्पन्न असत् पदार्थों के सत्ता समवाय है तो वह खरविषाणादि के भी होगा; क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है। यदि सत् पदार्थों के सत्ता समवाय कहोगे तो वह सत्ता समवाय अन्य सत्ता समवाय से है या स्वतः ? अन्य सत्ता समवाय से मानने पर अनवस्था दोष आता है। पहले कहे गये दोनों विकल्प यहाँ भी होंगे। स्वतः सतों के मानने पर सत्ता समवाय अनर्थक हो जाता है।
योग-उत्पद्यमान पदार्थों का सत्ता सम्बन्ध और निष्ठा सम्बन्ध इन दोनों का एक हो काल स्वीकार किया गया है। १. अङ्गीकरणात् ।
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