Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां हि त्रिरूपाल्लिङ्गादेव केवलात् प्रामाण्यमुत्पद्यमानं दृष्टम् । प्रत्यक्षादिष्वपि तथैव प्रतिपत्तव्यम्', नान्यथेति । तत एवाऽऽप्तोक्तत्वगुणसद्भावेऽपि न तत्कृतमागमस्य प्रामाण्यम् । तत्र हि गुणभ्यो दोषाणामभावस्तदभावाच्च संशय-विपर्यासलक्षणाप्रामाण्यद्वयासत्त्वेऽपि प्रामाण्यमौत्सर्गिकमनपोदितमास्त एवेति । ततः स्थितम्-प्रामाण्यमुत्पत्ती न सामग्रयन्तर सापेक्षमिति । "नापि विषयपरिच्छित्तिलक्षणे स्वकार्ये स्वग्रहणसापेक्षम्, अगृहीतप्रामाण्यादेव ज्ञानाद्विषयपरिच्छित्तिलक्षणकार्यदर्शनात् ।।
ननु न परिच्छित्तिमात्रं प्रमाणकार्यम्, तस्य मिथ्याज्ञानेऽपि सद्भावात् । होती है, प्रामाण्य तो परतः ही होता है। इस विपर्यय को कल्पना सम्भव नहीं है। अन्वय-व्यतिरेक से केवल ( पक्ष सत्व, सपक्ष सत्व और विपक्ष व्यावृत्तरूप) त्रिरूपलिंग से प्रामाण्य उत्पन्न हुआ देखा गया है। (यह जल है, इस प्रकार ) प्रत्यक्ष ज्ञान में भी उसके स्वकारण से ही प्रमाणता उत्पन्न होती है, ऐसा मानना चाहिए, अन्यथा नहीं। प्रत्यक्ष, अनुमान आदि में स्वतः प्रामाण्य के प्रतिपादन स ही आप्त के द्वारा कहे हुए गुण का सद्भाव होने पर भी आगम में प्रमाणता उस गुण के कारण नहीं है। आगम में गुणों से दोषों का अभाव है तथा दोषों के अभाव से संशयविपर्यय रूप जो दो अप्रमाण ज्ञान उनका अभाव है, अतः आगम का प्रामाण्य स्वाभाविक रूप से अबाधित-अनिराकृत सिद्ध हो जाता है । चूंकि विज्ञान कारण से ही प्रामाण्य उत्पन्न हुआ प्रतिभासित होता है, अतः यह बात स्थित हुई कि प्रमाण का प्रामाण्य उत्पत्ति में विज्ञान रूप कारण से भिन्न अन्य कारण की अपेक्षा नहीं रखता है। और न अज्ञान की निवृत्तिलक्षण रूप ज्ञान कार्य में अपने ग्रहण की अपेक्षा रखती है। जिसका प्रामाण्य गृहीत नहीं है, ऐसे ज्ञान से विषय की परिच्छित्ति रूप कार्य देखा जाता है।
नैयायिकों ने जो यह कहा है कि प्रमाण का कार्य जाननामात्र नहीं है; क्योंकि उसका मिथ्याज्ञान में भी सद्भाव है, ज्ञानविशेष तो जिसका १. पक्षधर्मत्वसपक्ष सत्त्वपक्षव्यावृत्तिरूपात् । २. नयने गुणाः सन्ति, यथार्थोपलब्धः। ३. इदं जलमिति प्रत्यक्षज्ञाने तत्कारणादेव प्रामाण्यमुत्पद्यते, इति प्रतिपत्तव्यम्;
न भिन्नकारणन। ४. प्रत्यक्षानुमानादौ स्वतः प्रामाण्यप्रतिपादनादेव । ५. ज्ञप्तिपक्षोध्यम् । ६. अज्ञानस्य निवृत्तिलक्षणे ।
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