Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां
तदगुहीतविषयस्य वा तद्व्यवस्थापकत्वम् ? आये पक्षे दर्शनस्येव तदनन्तरभाविनिर्णयस्यापि नियतविषयत्वेन व्याप्त्यगोचरत्वात् । द्वितीयपक्षेऽपि विकल्पद्वयमुपढोकत एव-तद्विकल्पज्ञानं प्रमाणमन्यथा वेति ? प्रथमपक्षे प्रमाणान्तरमनुमन्तव्यम्; प्रमाणद्वयेऽनन्तर्भावात् । उत्तरपक्षे तु न 'ततोऽनुमानव्यवस्था; न हि व्याप्तिज्ञानस्याप्रामाण्ये तत्पूर्वकमनुमानं प्रामाण्यमास्कन्दति, सन्दिग्धादिलिङ्गादप्युत्पद्यमानस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् । ततो व्याप्तिज्ञानं सविकल्पमविसंवादकं च प्रमाणं प्रमाणद्वयान्यदभ्युपगमम्यमिति न सौगताभिमप्रमाणसङ्ख्यानियमः ।
एतेनानुपलम्भात् कारण व्यापकानुपलम्भाच्च कार्यकारण-व्याप्यव्यापकभावसंवित्तिरिति वदन्नपि प्रत्युक्तः; अनुपलम्भस्य प्रत्यक्षविषयत्वेन कारणाद्यनुपलम्भस्य च लिंगत्वेन तज्जनितस्यानुमानत्वात् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां व्याप्तिग्रहणपक्षोपक्षिप्तदोषानुषंगात् ।
__ जैन-वह बौद्ध युक्तिवादी नहीं है। प्रत्यक्ष से गृहीत विषय वाले विकल्प को आप व्याप्ति का व्यवस्थापक मानते हैं या प्रत्यक्ष से जिसका विषय गृहीत नहीं है, ऐसे विकल्प को व्याप्ति का व्यवस्थापक मानते हैं ? आदि पक्ष में दर्शन के समान उसके पीछे होने वाले विकल्प रूप निर्णय के भी विशिष्ट देश-काल के आधार से नियत विषयपने के कारण व्याप्ति का ज्ञान ही नहीं होता है। दूसरे पक्ष में दो विकल्प प्राप्त होते हैंवह विकल्पज्ञान प्रमाण स्वरूप है या अप्रमाण ? प्रथम पक्ष में अन्य प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि उसका दो प्रमाणों में अन्तर्भाव नहीं होता है । उत्तर पक्ष मानने पर अर्थात् अप्रमाण सविकल्प मानने पर उससे अनुमान की व्यवस्था नहीं होती है। व्याप्ति ज्ञान के अप्रामाण्य होने पर व्याप्ति ज्ञानपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाणता को प्राप्त नहीं करता है। सन्दिग्ध, विपर्यस्त आदि लिंग से उत्पन्न होने वाले अनुमान को भी प्रमाण मानने का प्रसंग आता है। अतः तर्क नामक व्याप्ति ज्ञान को सविकल्पक, अविसंवादक और प्रत्यक्ष तथा अनुमान इन दोनों से भिन्न अन्य ही प्रमाण मानना चाहिए। इस प्रकार बौद्धाभिमत प्रमाण संख्या का नियम नहीं ठहरता है।
प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा व्याप्ति के ग्रहण के निराकरण के रूप स्वभावानुपलम्भ से, कारणानुपलम्भ से और व्यापकानुपलम्भ से कार्यकारणभाव और व्याप्य-व्यापकभाव का ज्ञान होता है, ऐसा कहने वाले बौद्धों का भी निराकरण हो जाता है, क्योंकि स्वभावानुपलम्भ तो प्रत्यक्ष का ही विषय है और कारणानुपलम्भ तथा व्यापकानुपलम्भ लिंग रूप हैं
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