Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथमः समुद्देशः कर्मवत् कर्तकरणक्रियाप्रतीतेः ॥९॥ ज्ञानविषयभूतं वस्तु कर्माभिधीयते, तस्यैव शप्तिक्रियया व्याप्यत्वात्, तस्येव तद्वत् । कर्ता आत्मा । करणं प्रमाणम् । क्रिया प्रमितिः । कर्ता च करणं च क्रिया च तासां प्रतोतिः; तस्याः । इति हेतौ का। प्रागुक्तानुभवोल्लेखे यथाक्रमं तत्प्रतीतिर्द्रष्टव्या ।
ननु शब्दपरामर्शसचिवेयं प्रतीतिर्न वस्तुबलोपजातेत्यत्राह
शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ यथाः घटादिशब्दानुच्चारणेऽपि घटाद्यनुभवस्तथाऽहमहमिकया योऽयमन्तमुखाकारतयाऽवभामः स शब्दानुच्चारणेऽपि स्वयमनुभूयत इत्यर्थः ।
अमुमेवार्थमुपपत्तिपूर्वकं परं प्रति सोल्लुण्ठमाचष्टेको वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥११॥
सूत्रार्थ-कर्म के समान कर्ता, करण और क्रिया को भी प्रतीति होती है ।।९।।
ज्ञान को विषयभूत वस्तु कर्म कही जाती है, क्योंकि उसका ही ज्ञप्ति क्रिया के साथ व्याप्यपना पाया जाता है। जैसे कि ज्ञप्ति क्रिया का कर्म के साथ । कर्ता आत्मा है, करण प्रमाण है, क्रिया प्रमिति है। कर्ता, करण और क्रिया की प्रतीति, उसका फल ज्ञान है। जैनेन्द्र व्याकरण में पञ्चमी विभक्ति की संज्ञा 'का' है। पहले कहे गए अनुभव के उल्लेख में ( कर्म कर्तादि की ) यथाक्रम से प्रतीति जाननी चाहिए।
शङ्का-कर्ता-कर्मादिक की प्रतीति तो शब्द का उच्चारण मात्र हो है, वस्तु के बल से उत्पन्न नहीं हुई है अर्थात् यथार्थ नहीं है। इसके विषय में आचार्य कहते हैं
सूत्रार्थ-शब्द का उच्चारण नहीं करने पर भी अपने आपका अनुभव पदार्थ के समान होता है ।। १०॥
जैसे घट आदि शब्द का उच्चारण नहीं करने पर भी घट आदि का अनुभव होता है, उसी प्रकार 'अहं', 'अहं' इस प्रकार से जो यह अन्तर्ज्ञान रूप अवभास है, वह शब्द का उच्चारण न करने पर भी स्वयं अनुभूत होता है।
इसी अर्थ को युक्तिपूर्वक पर का उपहास करते हुए कहते हैं
सूत्रार्थ-ऐसा कौन है जो ज्ञान से प्रतिभासित हुए पदार्थ को प्रत्यक्ष १. पञ्चमी। २. शब्दविकल्पप्रधानो विचारः ।
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