Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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१८
प्रमेयरत्नमालायां स्वस्योन्मुखता स्वोन्मुखता, तया स्वोन्मुखतया स्वानुभवतया प्रतिभासन' स्वस्य व्यवसायः । अत्र दृष्टान्तमाह--
अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ तच्छब्देनार्थोऽभिधीयते । यथाऽर्थोन्मुखतया प्रतिभासनमर्थव्यवसायस्तथा स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायो भवति । अत्रोल्लेख माह
घटमहमात्मना वेद्मि ॥८॥ ननु ज्ञानमर्थमेवाध्यवस्यति, न स्वात्मानम् । आत्मानं फलं वेति केचित् । , कत कर्मणोरेव प्रतोतिरित्यपरे । कर्तृ-कर्म-क्रियाणामेव प्रतीतिरित्यन्ये । तेषां मतमखिलमपि प्रतीतिबाधितमिति दर्शयन्नाह
अपने आपको जानने के अभिमुख होने को स्वोन्मुखता कहते हैं। उस स्वोन्मुखता से या स्वानुभवता से जो आत्माभिमुखतया प्रतीति होती है, वह स्वव्यवसाय है।
यहाँ पर दृष्टान्त कहते हैं
सूत्रार्थ-जैसे अर्थ के उन्मुख होकर उसे जानना अर्थ व्यवसाय है ।। ७॥
। तत् शब्द से अर्थ का कथन होता है। जिस प्रकार पदार्थ के अभिमुख होकर उसके जानने को अर्थव्यवसाय कहते हैं, उसी प्रकार अपने आपके अभिमुख होकर जो प्रतिभास होता है, वह स्वव्यवसाय होता है ।
यहाँ पर उल्लेख कहते हैंविशेष-दृष्टान्त और दार्टान्त का उदाहरण उल्लेख है। सूत्रार्थ-मैं घट को अपने आपके द्वारा जानता हूँ ॥ ८॥
नैयायिकों का कहना है कि ज्ञान अर्थ का ही निश्चय करता है, अपने आपको नहीं जानता है। कुछ कहते हैं कि ज्ञान अपने आपको और फल को ही जानता है। भाट कहते हैं कि कर्ता और कर्म को ही प्रतीति होतो है, शेष की नहीं । जैमिनीय कहते हैं कि कर्ता, कर्म और क्रिया की ही प्रतीति होती है, करण का नहीं। उन सबके सब मत प्रतीति से बाधित हैं, इस बात को दिखलाने के लिए आचार्य कहते हैं । १. ज्ञानस्य आत्मानं स्वं जानातीति प्रतीतिः प्रतिभासनम् ।
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