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पुनः सुंदरी शब्द का प्रयोग तो उपासकदशांग' और भगवतीसूत्र' आदि आगमों में भी मिलता है ।
आतुरप्रत्याख्यान के संबंध में मुनिजी का आक्षेप यह है कि उसमें सात स्थानों पर धन के उपयोग करने का आदेश है, यह कथन सावद्य होने के कारण अमान्य है । गुरुभक्ति, साधर्मिक भक्ति आदि में सम्पत्ति का उपयोग होना किस अर्थ में सावध है, यह हमें समझ में नहीं आ रहा है। मुनि के लिए औद्देशिक रूप से भोजनादि चाहे न बनाए जाएँ किन्तु उन्हें जो दान दिया जाता है उसमें सम्पत्ति का विनियोग तो होता ही है । बिना धन के भोजन, वस्त्र और मुनि जीवन के उपकरण आदि प्राप्त नहीं किये जा सकते। पुनः प्रवचन भक्ति और स्वधर्मी वात्सल्य का उल्लेख तो ज्ञाताधर्मकथा में तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन के संदर्भ में भी हुआ है ।' अन्न, वस्त्रादि के दान को तो पुण्य रूप भी माना गया है । अपने इस कथन की पुष्टि में हम कहना चाहेंगे कि तीर्थंकरों के द्वारा भी दीक्षा लेने के पूर्व दान देने का उल्लेख आगम ग्रंथों में मिलता है। 2 हम मुनिजी से यह जानना चाहेंगे कि क्या तीर्थंकर द्वारा दिया गया दान धन के विनियोग के बिना होता है ? क्या वह सावद्य होता है? साधु सावद्य भाषा न बोले, यह बात तो समझ में आ सकती है किन्तु वह गृहस्थ को उसके दान आदि कर्तव्य का बोध भी न कराए, यह कैसे मान्य किया जा सकता है ? हमें समझ में नहीं आ रहा है कि साधर्मिक-भक्ति आदि का उल्लेख होने मात्र से आतुरप्रत्याख्यान जैसे चारित्रगुण और साधना प्रधान प्रकीर्णको मुनिजी ने कैसे अमान्य बतलाने का प्रयास किया है ?
गणिविद्या को अस्वीकार करने का तर्क मुनिजी ने यह दिया है कि उसमें कुछ विशिष्ट नक्षत्रों में दीक्षा, केशलोच और गुरु सेवा आदि नहीं करने को कहा गया है। आगे मुनिजी ने यह भी लिखा है कि गणिविद्या श्रवण नक्षत्र में दीक्षा लेने का निषेध करती है जबकि मुनिजी का कहना है कि- “20 तीर्थंकरों ने श्रवण नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की, ऐसा आगमों में उल्लेख है । आगमों में जिस कार्य को मान्य किया जाए उसके विपरीत जो उसका निषेध करे, उसे कैसे मान्य किया जाए ।" हम मुनिजी से पूछना चाहेंगे उनके द्वारा मान्य 32 आगमों में कौन - सा ऐसा आगम ग्रंथ है, जिसमें यह
1. उपासकदशांग - 'सुंदरी णं देवाणुप्पिया', उद्धृ / पाइअसद्दमहण्णवो - पृष्ठ 911-912/ 2. भगवती 9 / 33; उद्धृत - अर्द्धमागधी कोश, भाग 4, 776
3. ज्ञाताधर्मकथासूत्र 8 / 14 / वही, 8 / 154