________________
265
वेवचन विष नहीं, अपितु अमृत तुल्य होते हैं। ऐसे वचनों में एक तो किसी का मरण होता नहीं है और कदाचित् कोई उनसे मर भी जाय तो वह मरकर भी अमर हो जाता है। इसके विपरीत अगीतार्थ के वचन भले ही अमृत तुल्य प्रतीत होते हों तो भी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए। वस्तुतः वेवचन अमृत नहीं, हलाहल विष की तरह हैं जिससे जीवतत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी भी जन्म-मरण से रहित नहीं हो पाता। (44-47) अतः अगीतार्थ और दुराचारी की संगति का त्रिविध रूप से परित्याग करना चाहिए तथा उन्हें मोक्षमार्ग में चोर एवंलुटेरों की तरह बाधकसमझनाचाहिए (48-49)। ___ग्रंथ के अनुसार, सुविनीत शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का विनयपूर्वक पालन करता है, और धैर्यपूर्वक परिषहों को जीतता है। वह अभिमान, लोभ, गर्व और विवाद आदि नहीं करता है; वह क्षमाशील होता है, इन्द्रियजयी होता है। स्व पर का रक्षक होता है, वैराग्यमार्ग में लीन रहता है तथा दस प्रकार की समाचारी का पालन करता है और आवश्यक क्रियाओं में संयमपूर्वक लगारहता है। (52-53) ___ विशुद्ध गच्छ की प्ररुपणा करते हुए ग्रन्थ में कहा गया है कि गुरु अत्यंत कठोर, कर्कश, अप्रिय, निष्ठुर तथाक्रूर वचनों के द्वारा उपालम्भ देकर भी यदि शिष्य को गच्छसे बाहर निकाल दे तो भी जो शिष्य द्वेष नहीं करते, निन्दा नहीं करते, अपयश नहीं फैलाते, निन्दित कर्म नहीं करते, जिनदेव-प्रणीत सिद्धांत की आलोचना नहीं करते अपितु गुरु के कठोर, क्रूर आदि वचनों के द्वारा जो भी कार्य-अकार्य कहा जाता है उसे “तहत्ति” ऐसा कहकर स्वीकार करते हों, उन शिष्यों कागच्छहीवास्तव में गच्छ है (54-56)।
सुविनीत शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह न केवल वस्त्र-पात्रादि के प्रति ममता में रहित होता है अपितु वह शरीर के प्रति भी अनासक्त होता है। वह न रूप तथा रस के लिए और न सौंदर्य तथा अहंकार के लिए अपितु चारित्र के भार को वहन करने के लिए ही शुद्ध एवं निर्दोष आहार ग्रहण करता है (57-59)।
____पाँचवें अंग आगम व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वर्णित प्रश्नोत्तर शैली के अनुसार ही प्रस्तुत ग्रंथ में भी गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि गौतम ! वहीं गच्छ वास्तव में गच्छ है जहाँ छोटे-बड़े का ध्यान रखा जाता हो, एक दिन भी जो दीक्षा पर्याय में बड़ा हो उसकी जहाँ अवज्ञा नहीं की जाती हो, भयंकर दुष्काल होने पर भी जिस गच्छ के साधु, साध्वी द्वारा लाया गया आहार ग्रहण नहीं करते हों, वृद्ध साधुभी साध्वियों से व्यर्थ वार्तालाप नहीं करते हों, स्त्रियों के अगोपांगां को सराग दृष्टि से नहीं देखते हों ऐसा गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (60-62)।