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उन्हें निर्दोष कह कर दोनों ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करने वाले बताया था। जापानी बौद्धों में तो आज भी हाराकेरी की प्रथा प्रचलित है जो मृत्युवरण की सूचक है।
फिरभी जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा में मृत्युवरण के प्रश्न को लेकर कुछ अंतर भी है। प्रथम तो यह कि जैन परंपरा के विपरीत बौद्ध परंपरा में शस्त्र के द्वारा तत्काल ही मृत्युवरण कर लिया जाता है। जैन आचार्यों ने शस्त्र के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण का विरोध इसलिये किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांक्षा की संभावना प्रतीत हुई। उनके अनुसार यदि मरणाकांक्षा की संभावना प्रतीत हुई। उनके अनुसार यदि मरणाकांक्षा नहीं है तो फिर मरण के लिए उतनी आतुरता क्यों ? इस प्रकार जहाँ बौद्ध परंपरा शस्त्र के द्वारा की गई आत्महत्या का समर्थन करती है, वहाँ जैन परंपरा उसे अस्वीकार करती है। इस संदर्भ में बौद्ध परंपरावैदिक परंपरा के अधिक निकट है। वैदिक परंपरा में मृत्युवरणः
सामान्यतया हिन्दू धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को महापाप माना गया है। पाराशरस्मृति में कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह साठ हजार वर्ष तक नरकावास करता है। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार भी आत्महत्या करने वाला कल्याणप्रद लोकों में भी नहीं जा सकता है। लेकिन इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक संदर्भ है जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते हैं। प्रायश्चित के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (11190-91), याज्ञवल्क्यस्मृति (31253), गौतमस्मृति (23 ।1), वशिष्ठ धर्मसूत्र (20122, 13।14) और आपस्तंबसूत्र (119।25।1-3, 6) में भी किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, हिन्दूधर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक स्थल हैं, जहाँ मृत्युवरण को पवित्र एवं धार्मिक आचरण के रूप में देखा गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व (25162-64), वनपर्व (85। 83) एवं मत्स्यपुराण (1861 34। 35) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देह
19. पाराशरस्मृति, 41112 20. मध्यभारत, आदिपर्व 179120