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357 शरीर को कृश किये हुए तथा जिनेन्द्र देवों द्वारा प्ररुपित अठारह हजार शीलांग को, जो सुविहित (मुनि) धारण करते हैं, वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र से विशुद्ध होते हैं। ऐसे सुविहित मुनिगण पुण्डरीक (शत्रुजय) पर्वत को निहारते हुए सामायिक आदिअंगसूत्रों और चतुर्दश पूर्वो का स्वाध्याय करते हुए वहाँ अवस्थित रहे। (29-32)।
आगे की गाथाओं में सौराष्ट देश में स्थित पुण्डरिक पर्वत की महिमा निरुपित करते हुए कहा गया है कि पुण्डरिक पर्वत दस प्रकार के कल्पवृक्षों, विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों, स्वादिष्ट रसों, आभूषणों, वस्त्रों, विलेपनों तथा विविध प्रकार की शय्याओं से युक्त हैं। देवताओं और मनुष्यों के लिए यह भू-भाग नित्य ही रमणीय है, देव समूह के लिए नृत्य, गीत, वादित यंत्र आदि भोग्य पदार्थ यहा प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं (33-38)।
पुण्डरिक पर्वत का विस्तार परिमाण बतलाते हुए कहा गया है कि यह श्रेष्ठ पर्वत भू-भागसेआठयोजन ऊँचा, शिखर तल पर दस योजन तथा मूल में पचासयोजन विस्तार वाला है (39)। आगे ग्रंथ में यह भी कहा गया है कि चैत्र मास की पूर्णिमा पर मासखमण की तपस्या के द्वारा सर्वप्रथम वहाँ पुण्डरिक को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हुई (41)।
ग्रंथानुसार शत्रुजय पर्वत के अग्रभाग पर आरुढ हो, पुण्डरिक के सानिध्य में अन्य अनेक साधु मोक्ष को प्राप्त हुए तथा पुण्डरिक साधु की तरह वे भी सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए (43)।आगेकीगाथा में सिद्धी प्राप्त समस्त साधुओं की देवों के द्वारा महिमा करने एवं विविध प्रकार से पुण्डरिक केवलि कीशरीर पूजा करने का विवेचन है (44)।
ग्रंथ में उल्लेख है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने कहा था कि इस अवसर्पिणी काल में भव्य जीवों के लिए सर्व तीर्थों में पुण्डरिक प्रथम तीर्थ होगा। देवों द्वारा इस प्रकार घोषणा करने पर भव्य जीवों की परिषद् आई और आकर उन्होंने इस पुण्यशाली पर्वत का नाम पुण्डरिकरखा (45-48)।
शजय पर्वत पर सिद्धी प्राप्त करने वाले साधकों का नामोल्लेख करते हुए कहा गया है कि नमि और विनमि विद्याधर चक्रवर्ती राजाओं ने वैताढ्य पर्वत पर सिद्धी प्राप्त की (50)। तदनन्तर इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न भरत तथा दशरथ के पुत्र राम द्वारा पुण्डरिक शिखर पर सिद्धी प्राप्त करने का विवेचन है। आगे की गाथा में यह भी कहा गया है कि प्रद्युम्न और साम्ब सहित साढ़े तीन करोड़ यादव कुमारों ने केवलज्ञान उत्पन्न होने पर पुण्डरिक पर्वत पर सिद्धी प्राप्त की। इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि पाँचों पाण्डुपुत्र