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सारावली नामक इस पुस्तक की प्रतिलिपि कराने वाला अत्यधिक सम्मान, यश और कीर्ति प्राप्त करे और पापकाभागी नहीं हो (116)।
इस प्रकार हम देखते है कि प्रस्तुत सारावली प्रकीर्णक शत्रुजय (पालीताना) महातीर्थ के महात्म्य को प्रस्तुत करता है। अतः प्रस्तुत प्रसंग में जैन परंपरा में चतुर्विध संघ रूप तीर्थ और कल्याणक क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र एवं अतिशय क्षेत्र रुप तीर्थ की अवधारणा का विकास कैसे हुआ इस पर विचार कर लेनाअपेक्षित है।
जैन धर्म में तीर्थ का महत्वः
समग्र भारतीय परंपराओं में “तीर्थ' की अवधारणा को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी जैन परंपरा में तीर्थ को जो महत्व दिया गया है वह विशिष्ट ही है, क्योंकि इसमें धर्म को ही तीर्थ कहा गया है और धर्म प्रवर्तक तथा उपासना एवंसाधना के आदर्श को तीर्थंकर कहा गया है। अन्यधर्म परंपराओं में जोस्थानईश्वर का है, वही स्थान जैन परंपरा में तीर्थंकर का है। तीर्थंकर को धर्मरुपी तीर्थ का संस्थापक माना जाता है। दूसरे शब्दों में जो तीर्थ अर्थात् धर्म मार्ग की स्थापना करता है, वहीं तीर्थंकर है। इस प्रकार जैन धर्म में तीर्थ एवं तीर्थंकर की अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी हुई है और वेजैन धर्म की प्राण हैं।
जैनधर्म में तीर्थ कासामान्य अर्थ
जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तीर्थशब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया है- “तीर्यते अनेनेति तीर्थः"" अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ कहलाता है। इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट जिनसे उस पार जाने की यात्रा प्रारंभ की जाती थी तीर्थ कहलाते थे, इस अर्थ में जैनागम जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदान तीर्थ और प्रभास तीर्थ का उल्लेख मिलता है।
तीर्थ कालाक्षणिक अर्थ
लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थशब्द का अर्थ लिया- जो संसार समुद्र पार करता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थंकर है। संक्षेप में मोक्ष
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(क) अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ. 2242 (ख) स्थानांगटीका। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, 3/57, 81, 62 (सम्पा. मधुकर मुनि)
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