Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 378
________________ 372 इस प्रकार जैनों में तीर्थंकरों की कल्याणक - भूमियों को तीर्थरूप में स्वीकार कर उनकी यात्रा के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम लगभग छठी शती से मिलने लगते हैं। यद्यपि इसके पूर्व भी यह परंपरा प्रचलित तोअवश्य हीरही होगी। ___ इस काल में कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त वेस्थल जो मंदिर और मूर्तिकला के कारण प्रसिद्ध हो गये थे, उन्हें भी तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया और उनकी यात्रा एवं वंदन को भी बोधिलाभ और निर्जरा का कारण माना गया। निशीथचूर्णी में तीर्थंकरों की जन्म कल्याणक आदिभूमियों के अतिरिक्त उत्तरापथ में धर्मचक्र, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप और कोशल की जीवन्त स्वामी की प्रतिमा का पूज्य बताया गया है।" इस प्रकार वे स्थल, जहाँ कलात्मक एवं भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ अथवा किसी जिन प्रतिमा को चमत्कारी मान लिया गया, तीर्थ रूप में मान्य हुए। उत्तरापथ, मथुरा और कोशल आदि की तीर्थ रुप में प्रसिद्धि इसी कारण थी । हमारी दृष्टि में संभवतः आगे चलकर तीर्थों का जो विभाजन कल्याणक क्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्र के रुप में हुआ उसका भी यही कारणथा। तीर्थ क्षेत्र के प्रकार - जैन परंपरा में तीर्थ स्थलों का वर्गीकरण मुख्य रुप से तीन वर्गों में किया जाता है 1. कल्याणक क्षेत्र, 2. निर्वाण क्षेत्र और, 3. अतिशय क्षेत्र। 1. कल्याणक क्षेत्र जैन परंपरा में सामान्यतया प्रत्येक तीर्थंकर के पाँच कल्याणक माने गये हैं। कल्याणक शब्द का तात्पर्य तीर्थंकर के जीवन की महत्वपूर्ण घटना से संबंधित पवित्र दिन से है। जैन परंपरा में तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा (अभिनिष्क्रमण), कैवल्य (बोधिप्राप्ति) और निर्वाण दिवसों को कल्याणक दिवस के रूप में माना जाता है। तीर्थंकर के जीवन की ये महत्वपूर्ण घटनाएँ जिस नगर या स्थल पर घटित होती हैं उसे कल्याणक-भूमि कहा जाता है। हम तीर्थंकरों की इन कल्याणक भूमियों का एक संक्षिप्त विवरण निम्नतालिका में प्रस्तुत कर रहे हैं 31. उत्तरावहे, धम्मचक्कं, महुरए देवणिम्मियथूभो कोसलाएवजियंतपडिमा, तित्थकराणवाजम्मभूमीओ।

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