Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

Previous | Next

Page 381
________________ 375 2. निर्वाणक्षेत्र निर्वाण क्षेत्र को सामान्यतया सिद्ध क्षेत्र भी कहा जाता है। जिस स्थल से किसी मुनि को निर्वाण प्राप्त होता है, वह स्थल सिद्ध क्षेत्र या निर्वाण स्थल के नाम से जाना जाता है। सामान्य मान्यता तो यह है कि इस भूमंडल पर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ से कोई न कोई मुनि सिद्धि को प्राप्त न हुआ हो। अतः व्यावहारिक दृष्टि से तो समस्त भूमण्डल ही सिद्धक्षेत्र या निर्वाण क्षेत्र है फिर भी सामान्यतया जहाँ से अनेक सुप्रसिद्ध मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया हो, उसे निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है। जैन परंपरा में शत्रुजय, पावागिरि, तुंगीगिरि, सिद्धवरकूट, चूलगिरि, रेशन्दगिरि, सोनागिरि आदि सिद्धक्षेत्र माने जाते हैं। सिद्धक्षेत्रों की विशिष्ट मान्यता तो दिगंबर परंपरा में प्रचलित है, किन्तु श्वेताम्बर परंपरा में भी शत्रुजयतीर्थ सिद्धक्षेत्र ही है। 3. अतिशय क्षेत्र वे स्थल, जो न तो किसी तीर्थंकर की कल्याणक-भूमि हैं, न किसी मुनि की साधना या निर्वाण-भूमि हैं किन्तु जहाँ की जिन-मूर्तियाँ चमत्कारी हैं अथवा जहाँ के मंदिर भव्य हैं , वे अतिशय क्षेत्र कहे जाते हैं। आज जैन परंपरा में अधिकांश तीर्थ अतिशय क्षेत्र के रूप में ही माने जाते हैं। उदाहरण के रूप में आबू, रणकपूर, जैसलमेर, श्रवणबेलगोला आदि इसी रूप में प्रसिद्ध हैं। हमें स्मरण रखना चाहिए कि जैनों के कुछ तीर्थन केवल तीर्थंकरों की मूर्तियों को चमत्कारिता के कारण, अपितु उस तीर्थ के अधिष्ठायक देवों की चमत्कारिता के कारण भी प्रसिद्ध है। उदाहरण के रुप में नाकोड़ा और महुड़ी की प्रसिद्धि उन तीर्थों के अधिष्ठायक देवों के कारण ही हुई है। इसी प्रकार हुम्मच की प्रसिद्धि पार्श्व की यक्षी - पद्मावती की मूर्ति के चमत्कारिक होने के आधार पर ही है। इन तीन प्रकार के तीर्थों के अतिरिक्त कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जो इस कल्पना पर आधारित हैं कि यहाँ पर किसी समय तीर्थंकर का पदार्पण हुआ था या उनकी धर्मसभा (समवसरण) हुई थी। इसके साथ-साथ वर्तमान में कुछ जैन-आचार्यों के जीवन से संबंधित स्थलों पर गुरु मंदिरों का निर्माण कर उन्हें भी तीर्थरुप में माना जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398