Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 383
________________ 377 जिन - यात्रा के संदर्भ में हरिभद्र के पंचाशक (8वीं शती) में विशिष्ट विवरण उपलब्ध होता है। हरिभद्र ने नवें पंचाशक में जिन-यात्रा के विधि विधान का निरूपण किया है किन्तु ग्रंथ को देखने से ऐसा लगता है कि वस्तुतः यह विवरण दूरस्थ तीर्थों में जाकर यात्रा करने की अपेक्षा अपने नगर में ही जिन - प्रतिमा की शोभा - यात्रा से संबंधित है। इसमें यात्रा के कर्तव्यों एवं उद्देश्यों का निर्देश है। उसके अनुसार जिनयात्रा में जिनधर्म की प्रभावना हेतु यथाशक्ति दान, तप, शरीर-संस्कार, उचित गीत-वादित्र, स्तुति आदि करना चाहिए। तीर्थ यात्राओं में श्वेताम्बर परंपरा में छह-रीपालक संघ यात्रा की जो प्रवृत्ति प्रचलित है, उसके पूर्व - बीज भी हरिभद्र के इस विवरण में दिखाई देते हैं।आजभी तीर्थयात्रा में इन छह बातों का पालन अच्छा माना जाता है 1. दिन में एक बार भोजन करना (एकाहारी) 2. भूमिशयन (भू-आधारी) 3. पैदल चलना (पादचारी) 4. शुद्ध श्रद्धा रखना (श्रद्धाकारी) 5. सर्वसचित्त का त्याग (सचित्त परिहारी) 6. ब्रह्मचर्य का पालन (ब्रह्मचारी) तीर्थों के महत्व एवं यात्राओं संबंधी विवरण हमें मुख्य रूप से परवर्ती काल के ग्रंथों में ही मिलते हैं। सर्वप्रथम प्रस्तुत “सारावली' नामक प्रकीर्णक में शत्रुजय - "पुण्डरीक तीर्थ' की उप्तत्ति कथा, उसका महत्व एवं उसकी यात्रा तथा वहाँ किये गये तप, पूजा, दान आदिके फल विशेषरुपसे उल्लिखित हैं।" 35. श्रीपंचाशक प्रकरणम् - हरिभद्रसूरि जिनयात्रापंचाशक, पृ. 248-63 अभयदेवसूरिकीटीका सहित - प्रकाशक - ऋषभदेव-केशरीमल (श्वे. संस्था. रतलाम) 36. पइण्णयसुत्ताई- सारावली पइण्णयं, पृ. 350 - 60 सम्पादक - मुनिपू. विजयजी, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई।

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