Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 387
________________ 381 स्थान माना जा सकता है। इसमें जो वर्णन उपलब्ध है, उससे ऐसा लगता है कि अधिकांश तीर्थस्थलों का उल्लेख कवि ने स्वयं देखकर किया है। यह कृति अपभ्रंश मिश्रित प्राकृत और संस्कृत में निर्मित है। इसमें जिन तीर्थों का उल्लेख है वे निम्न है :शत्रुजय, रैवतक गिरि, स्तम्भनकतीर्थ, अहिच्छत्रा, अर्बुद (आबू) अश्वावबोध, (भड़ौच), वैभारगिरि (राजगिररि), कौशाम्बी, लदद अयोध्या, अपापा, (पावा) कलिकुण्ड, हस्तिनापुर, सत्यपुर, (सौचार), अष्टापद (कैलाश), मिथिला, रत्नवाहपुर, प्रतिष्ठानपत्तन, (पैठन), काम्प्ल्यि , अवंतिदेशस्थ अभिनंदनदेव, नासिक्यपुर (नासिक), हरिकंखीनगर, अवंतिदेवस्थ, अभिनंदनदेव, चम्पा, पाटलिपुत्र, श्रावस्ति, वाराणसी, कोटिशिला, कोकावसति, दिपुरी, हस्तिनापुर, अंतरिक्षपार्श्वनाथ, फलवर्द्धि पार्श्वनाथ (फलौधी), आमरकुण्ड (हनमकोण्ड - आंध्रप्रदेश) आदि। इन ग्रंथों के पश्चात् श्वेताम्बर परंपरा में अनेक तीर्थमालाएँ एवं चैत्यपरिपाटियाँ लिखी गई तो कि तीर्थ संबंधी साहित्य की महत्वपूर्ण अंग है। ये अधिकांशतः परवर्ती अपभ्रंश एवं प्राचीन मरू - गुर्जर में लिखी गई हैं। इन तीर्थमालाओंऔर चैत्यपरिपाटियों की संख्या शताधिक है और ये ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं - अठारहवीं शताब्दी तक निर्मित होती रही हैं। इन तीर्थमालाओं तथा चैत्यपरिपाटियों में कुछ तो ऐसो हैं जो किसी तीर्थ विशिष्टसेही संबंधित हैं और कुछ ऐसी हैं जोसभी तीर्थों का उल्लेख करती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इन चैत्यपरिपाटियों का अपना महत्व है, क्योंकि ये अपने-अपने काल में जैन तीर्थों की स्थिति का सम्यग् विवरण प्रस्तुत कर देती हैं। इन चैत्यपरिपाटियों में न केवल तीर्थक्षेत्रों का विवरण उपलब्ध होता है, अपितु वहाँ किस-किस मंदिर में कितनी-कितनी पाषाण और धातु की जिन प्रतिमाएँ रखी गई है, इसका भी विवरण उपलब्ध हो जाता है। उदाहरण के रुप में कटुकमति लाधाशाह द्वारा विरचित सूरतचैत्यरिपाटी में यह बताया गया है कि इस नगर के गोपीपुरा क्षेत्र में कुल 75 जिन मंदिर, 8 विशाल जिनमंदिर तथा 1325 जिनबिम्बथे। संपूर्ण सूरत नगर में 10 विशाल जिन मंदिर, 235 देरासर (गृहचैत्य), 3 गर्भगृह, 3178 जिन प्रतिमाएं थी। इसके अतिरिक्त सिद्धचक्र कमल चौमुख, पंचतीर्थी, चौबीसी आदि को मिलाने पर 10041 जिनप्रतिमाएँ उस नगर में थी, ऐसा उल्लेख है। यह विवरण 1713 का है। इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि इन रचनाओं का ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से कितना महत्व है। संपूर्ण चैत्य परिपाटियों अथवा तीथमालाओं का उल्लेख अपने आप में एक स्वतंत्र शोध का विषय है। अतः हम उन सबकी चर्चा न करके मात्र उनकी एक संक्षिप्त सूची यहाँ प्रस्तुत कर रहें हैं

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