Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 394
________________ 388 विकास के संबंध में ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ चर्चा करेंगे। यद्यपि परंपरागत विश्वास और अनुश्रुतियों के आधार पर निर्मित शत्रुजय कल्प आदि ग्रंथों के आधार पर सौराष्ट में जैनों की अवस्थिति ऋषभदेव के काल से ही मानी जाती है क्योंकि इस तीर्थ संबंधी कथानकों में ऋषभदेव से लेकर परवर्ती सभी तीर्थंकरों के यहाँ आने के उल्लेख वर्णित हैं, साथ ही इस तीर्थ की स्थापना का संबंध भी ऋषभदेव के सांसारिक पौत्र एवं प्रथम गणधर पुण्डरीक के यहाँ से मुक्ति प्राप्त करने से जोड़ा गया है। मात्र यही नहीं प्रसिद्ध पौराणिक पुरुषों यथा-राम, पाँचों पाण्डव एवं कुंती आदि सहित करोड़ों मुनियों के यहाँ से मुक्त होने के उल्लेख हैं किन्तु यह सब पौराणिक मिथक ही हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से इन सबकी प्रामाणिकता सिद्ध कर पाना कठिन है। यह सत्य है कि अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण का संबंध इस प्रदेश से रहा है और उनके कारण ही गिरनार तीर्थ की प्रसिद्धि भी है, किन्तु इसे भी एक प्रागैतिहासिक सत्य के रुप में स्वीकार करके संतोष करना पड़ता है, इस संबंध में भी ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं फिर भी यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि ईसा की प्रथम शती के आसपास सौराष्ट जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। इस काल में सौराष्ट के नगरों में वल्लभी जैनधर्म का प्रमुख गढ़ था। यहाँ पर ईसा की चतुर्थ शती में नागार्जुन की अध्यक्षता में और पाँचवीं शती में देवर्द्धिगणि की अध्यक्षता में दक्षिण पश्चिम के निग्रंथ संघ ने एकत्रित होकर आगमों की वाचना की थी। पादलिप्त, आर्य भद्रगुप्त, आर्यरक्षित, धरसेन, नागार्जुन, देवर्धिगणि आदि प्राचीन आचार्यों का संबंध इस क्षेत्र से रहा है। दिगंबर परंपरा भी यह मानती हैं कि पुष्पदंत और भूतबली ने भी धरसेन से गिरनार पर्वत की गुफाओं में कर्म सिद्धांत का अध्ययन किया था फिर भी आगमों और प्राकृत आगमिक व्याख्याओं में अन्तकृतदशा को छोड़कर कहीं भी शत्रुजय, पालीताना अथवा पुण्डरीक गिरिका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है।आगमों में गिरनार का रैवतक या उर्जयंत के रुप में उल्लेख है। इस रैवतक पर्वत पर निर्ग्रन्थ मुनियों के निवास और संथारा करने के उल्लेख तो अनेक हैं, किन्तु शत्रुजय अथवा उसके पुण्डरिक गिरि आदि अन्य पर्यायवाची नामों अन्तकृतदशांग के अतिरिक्त उल्लेख प्रायः नहीं मिलता। आचारांग नियुक्ति में अष्टापद, उर्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र, अहिच्छत्रा के तथा चमर उत्पादक्षेत्र का एवं निशीथगिरि या पालीताना का उल्लेख नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि चाहे तपागच्छ पट्टावली के उल्लेख के अनुसार ईस्वी सन् 313 में पुण्डरिकगिरि या शत्रुजय में जिन मंदिर बन गया हो, फिर भी उसकी प्रसिद्धि प्रमुख तीर्थ के रुप में परवर्तीकालमें ही हुई।

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