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फिर भी इनमें से अधिकांश तीर्थसंबंधीग्रंथअनुश्रुतियों को अपेक्षासे अधिक महत्वदे देते है अतः उनकी ऐतिहासिक संदिग्ध बन जाती है।
शत्रुजय संबंधी विशेष साहित्य
तीर्थों और तीर्थ संबंधी साहित्य की इस सामान्य चर्चा के पश्चात् हम यहाँ शजय तीर्थ या पुण्डरिक गिरि के संबंध में कुछ विशेष चर्चा करना चाहेंगे, क्योंकि प्रस्तुत सारावली उसी तीर्थ से संबंधित है।
हम देखते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परंपराओं में तीर्थ संबंधी साहित्य मुख्यतः दो प्रकार का हैं- एक वह जो तीर्थों की चर्चा करता है। प्रथम वर्ग की जो रचनाएँ है उनमें दोनों ही परंपरा के आचार्यों ने रविषेण के पद्मचरितआदि के अपवाद को छोड़कर शत्रुजय तीर्थ का उल्लेख किया। श्वेताम्बर परंपरा के सभी आचार्य तो शत्रुजय का उल्लेख करते ही हैं, दिगम्बर परंपरा में भी निर्वाणकाण्ड और निर्वाणभक्ति में शत्रुजय का उल्लेख है। यद्यपि पर्वत पर एक मध्यम आकार के परवर्ती कालीन दिगम्बर मंदिर को छोड़कर प्रायः सभी मंदिर श्वेताम्बर आम्नाय के ही हैं। शत्रुजय तीर्थ का महत्व बताने वाला कोई विशिष्ट ग्रंथ दिगंबर परंपरा में है ऐसा हमारी जानकारी में नहीं है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में प्रस्तुत सारावली प्रकीर्णक के अतिरिक्त भी ऐसे
अनेक ग्रंथ हैं, जो शत्रुजय (पुड़रिक गिरि) के महत्व, स्तुति एवं विवरण से युक्त हैं। यद्यपि प्रस्तुत सारावली प्रकीर्णक का निश्चित रचनाकाल बता पाना कठिन है फिर भी शत्रुजय का महत्व बताने वाले ग्रंथों में इसका स्थान प्रमुख है। इसके अतिरिक्त परंपरागत मान्यता यह है कि पूर्व साहित्य के “कल्प प्राभृत" के आधार पर भद्रबाहु स्वामी ने शत्रुजयकल्प की रचना की थी। उसके पश्चात् वज्रस्वामी और पादलिप्त सूरि ने शत्रुजयकल्प लिखा था। किन्तु आज न तो ये ग्रंथ उपलब्ध हैं और न इन ग्रंथों के अस्तित्व को स्वीकार करने का कोई ऐतिहासिक प्रमाण ही है। अतः इसे एक अनुश्रुति से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है। यद्यपि जिनप्रभ ने विविध तीर्थकल्प के शत्रुजयकल्प में इस बात का संकेत दिया है कि उन्होंने इस कल्प की रचना भद्रबाहु, वज्रस्वामी एवं पादलिप्तसूरि के शत्रुजयकल्प के आधार पर की है । तपागच्छीय धर्मघोषसूरि द्वारा लगभग विक्रम की चौदहवीं शती के पूर्वार्ध में रचित है और दूसरा खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि द्वारा कल्पप्रदीप या विविधतीर्थकल्प के अंतर्गत शत्रुजयकल्प के नाम से विक्रम संवत् 1385 में रचित है। दोनों की विषयवस्तु में पर्याप्त समानता है। प्रो. एम.ए. ढाकी के अनुसार दोनों में लगभग 50 वर्ष का अंतर