Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 376
________________ 370 कैलाश आदि पर्वतों को तीर्थ माना गया, वहीं जैन परंपरा में शत्रुंजय नदी आदि को पवित्र या तीर्थ के रुप में माना गया है, किन्तु यह इन परंपराओं के पारस्परिक प्रभाव का परिणाम था । पुनः हिन्दू परंपरा में जिन पर्वतीय स्थलों जैसे कैलाश आदि को तीर्थ रुप माना गया उनके पीछे भी किसी देव का निवास स्थान या उनकी साधनास्थली होना ही एकमात्र कारण था, किन्तु यह निवृत्तिमार्गी परंपरा का ही प्रभाव था । दूसरी ओर हिन्दू परंपरा के प्रभाव से जैनों में भी यह अवधारणा बनी कि यदि शत्रुंजय नदी में स्नान नहीं किया तो मानव जीवन ही निरर्थक है । " सतरूंजी नदी नहायो नहीं, तो गया मिनख जमारो हार " ॥ तीर्थ और तीर्थयात्रा पूर्व विवरण से स्पष्ट है कि जैन परंपरा में “तीर्थ” शब्द के अर्थ का ऐतिहासिक विकास-क्रम है। सर्वप्रथम जैन धर्म में गंगा आदि लौकिक तीर्थों की यात्रा तथा वहाँ स्नान, पूजन आदि को धर्म साधना की दृष्टि से अनावश्यक माना गया और तीर्थ शब्द को आध्यात्मिक अर्थ प्रदान कर आध्यात्मिक साधना-‍ -मार्ग को तथा उस साधना का अनुपालन करने वाले साधकों के संघ को ही तीर्थ के रुप में स्वीकार किया गया किन्तु कालान्तर में जैन परंपरा में भी तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों को पवित्र स्थानों के रूप में मान्य करके तीर्थ तीर्थ की लौकिक अवधारणा का विकास हुआ। ई. पू. में रचित अति प्राचीन जैन आगमों जैसे आचारांग आदि में हमें जैन तीर्थस्थलों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि उनमें हिन्दू परंपरा के तीर्थस्थलों पर होने वाले महोत्सवों तथा यात्राओं का उल्लेख मिलता है परंतु आध्यात्ममार्गी जैन परंपरा वाले मुनि के लिए इन तीर्थमेलों और यात्राओं में भाग लेने का भी निषेध करती थी । " ईसा की प्रथम शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के मध्य निर्मित परवर्ती आगमिक साहित्य में भी यद्यपि जैन . तीर्थस्थलों और तीर्थयात्राओं के स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलते है, फिर भी इनमें तीर्थंकरों की कल्याणकारीभूमियों, विशेष रुप से जन्म एवं निर्वाण स्थलों की चर्चा है। * 25. से भिक्खु वा भिक्खु वा ......... . धूम महेसु वा, चेतिय महेसुवा, तडाग महेसु . वा, दहमहेगुवा, ई महेसुवा, सरमहेसु या. . णो पडिगाहेज्जा । - आचारांग 2 / 1 / 24 26. (अ) समवायांग प्रकीर्णक, समवाय 225 / 1 (ब) आवश्यक निर्युक्ति, 382-84

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