Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 374
________________ 368 चरणकमलों से संस्पर्शित उर्जयंत, शत्रुजय, पावागिरि आदि तीर्थ हैं और कर्मक्षय का कारण होने से वे व्यवहारतीर्थ भी वंदनीय माने गये हैं। इस प्रकार दिगम्बर परंपरा में भी साधना मार्ग और आत्मविशुद्धि के कारणों को निश्चयतीर्थ और पंचकल्याणक भूमियों को व्यवहार तीर्थ माना गया है। मूलाचार में यह भी कहा गया है कि दाहोपशमन, तृषानाशऔर मल की शुद्धिये तीन कार्य जो करते हैं वे द्रव्वतीर्थ हैं किन्तु जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से मुक्त जिनदेव हैं वे भावतीर्थ हैं। यह भावतीर्थ ही निश्चयतीर्थ है। कल्याणक भूमि तो व्यवहारतीर्थ है। इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में प्रधानता तो भावतीर्थ या निश्चयतीर्थ को ही दी गई है, किन्तु आत्मविशुद्धि के हेतु या प्रेरक होने के कारण द्रव्यतीर्थों या व्यवहारतीर्थों को भी स्वीकार किया गया है। स्मरण रहे कि अन्य धर्म परंपराओं में जो तीर्थ की अवधारणा उपलब्ध है, उसकी तुलना जैनों के द्रव्य-तीर्थ से की जा सकती है। जैन परंपरा में तीर्थशब्द का अर्थविकास जैन परंपरा में तीर्थ शब्द का अर्थ - विकास श्रमण परंपरा में प्रारंभ में तीर्थ की इस अवधारणा को एक आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया गया था। विशेषावश्यकभाष्य जैसे प्राचीन आगमिकव्याख्या ग्रंथों में भी वैदिक परंपरा में मान्य नदी, सरोवर आदि स्थलों को तीर्थ मानने की अवधारणा का खण्डन किया गया और उसके स्थान पर रत्नत्रय से युक्त साधनामार्गअर्थात् उस साधन से चल रहे साधक के संघ को तीर्थ के रुप में अभिनिहित किया गया है। यही दृष्टिकोण अचेल परंपरा के ग्रंथ मूलाचार में भी देखा जाता है, जिसका उल्लेख पूर्व में हम कर चुके हैं। ___ परवर्ती काल में जैन परंपरा में तीर्थ संबंधी अवधारणा में परिवर्तन हुआ और द्रव्यतीर्थ अर्थात् पवित्र स्थलों को भी तीर्थ माना गया। सर्वप्रथम तीर्थंकरों को जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण से संबंधित स्थलों को पूज्य मानकर उन्हें तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया। 22. 'तज्जगत्प्रसिद्ध निश्चयतीर्थ प्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थउर्जयन्तशत्रुजयला देशपावागिरि ........ . __- बोधपाहुड, टीका, 27/13/7 23. दुविहंच होई तित्थंणादव्वंदव्वभावसंजुत्तं। एदेसिंदोण्हपियपत्तेयपरुवणा होदि॥

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