Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 373
________________ 367 तीर्थ कहा गया है। भगवतीसूत्र में तीर्थ की व्याख्या करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि चतुर्विध श्रमणसंघ ही तीर्थ है।" श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविकाएँ इस चतुर्विध श्रमणसंघ के चार अंग हैं। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि प्राचीन जैन ग्रंथों में तीर्थ शब्द को संसार-समुद्र से पार कराने वाले साधन के रूप में ग्रहीत करके त्रिविध साधना मार्ग और उसके अनुपालन करने वाले चतुर्विध श्रमण संघ को ही वास्तविक तीर्थमाना गया है। निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ जैनों की दिगमबर परंपरा में तीर्थ का विभाजन निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ के रूप में हुआ है। निश्चयतीर्थ के रुप में सर्वप्रथम तोआत्मा के शुद्ध-बुद्ध स्वभाव को ही निश्चयतीर्थ कहा गया है। उसमें कहा गया है कि पंचममहाव्रतों से युक्त, सम्यक्त्वसे विशुद्ध, पाँच इन्द्रियों से संयत निरपेक्ष आत्मा ही ऐसा तीर्थ है जिसमें दीक्षा और शिक्षा रुप स्नान करके पवित्र हुआ जाता है।" पुनः निर्दोष सम्यक्त्व, क्षमा आदिधर्म, निर्मल, संयम, उत्तम तप और यथार्थज्ञान - ये सब भी कषायभाव से रहित और शांतभाव से युक्त होने पर निश्चयतीर्थ माने गये हैं। इसी प्रकार मूलाचार में श्रुतधर्म को तीर्थ कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान के माध्यम से आत्मा को पवित्र बनाता है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि वे सभी साधन जो आत्मा के विषय - कषायरुपी मल को दूर कर उसे संसारसमुद्र से पार उतारने में सहायक होते या पवित्र बनाते हैं, वे निश्चयतीर्थ हैं। यद्यपि बोधपाहुड की टीका (लगभग 11वीं शती) में यह भी स्पष्ट रुप से उल्लेख मिलता है कि जो निश्चयतीर्थ की प्राप्ति का कारण है ऐसे जगत - प्रसिद्ध मुक्तजीवों के 18. तित्यं भंते तित्थं तित्थगरे तित्थ ? गोयमा ! अरहा ताव णियमा तित्थगरे, तित्थं पुण चाउव्वणाइणं समणसंघे। तंजहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओय। - भगवतीसूत्र, शतक 20, उद्देशक 8, 19. “वयसंमत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदेणिरावेक्खो। हाएउमुणी तित्थदिक्खासिक्खासुण्हाणेण।" - बोधपाहुड, मू. 26-27 20. बोधपाहुड, टीका 26/91/21 21. सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं। मूलाचार, 557

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