Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 372
________________ 366 1. सर्वप्रथम कुछ तीर्थ (तट) ऐसे होते है जिनमें प्रवेश भी सुखकर होता है और जहाँ से पार करना भी सुखकर होता है; इसी प्रकार कुछ तीर्थ या साधक - संघ ऐसे होते है, जिनमें प्रवेशभी सुखद होता है और साधना भी सुखद होती है। ऐसे तीर्थ का उदाहरण देते हुए भाष्यकार ने शैव मत का उल्लेख किया है, क्योंकि शैव सम्प्रदाय में प्रवेशऔर साधना दोनां ही सुखकर माने गये है। दूसरे वर्ग में वे तीर्थ (तट) आते हैं जिनमें प्रवेश तो सुखरूप होता है किन्तु जहाँ से पार होना दुष्कर या कठिन होता है। इसी प्रकार कुछ धर्मसंघों में प्रवेश तो सुखद होता है किन्तु साधना कठिन होती है। ऐसे संघ का उदाहरण बौद्ध - संघ के रूप में दिया गया है। बौद्ध संघ में प्रवेश तो सुलभतापूर्वक संभवथा, किन्तु साधना उतनी सुखरूप नहीं थी, जितनी की शैव सम्प्रदाय की थी। तीसरे वर्ग में ऐसे तीर्थ का उल्लेख हुआ है जिसमें प्रवेश तो कठिन है किन्तु साधना सुकर है। भाष्यकार ने इस संदर्भ में जैन के ही अचेल-सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। इस संघ में अचेलकता अनिवार्य थी, अतः इस तीर्थ को प्रवेशकी दृष्टि से दुष्कर, किन्तु अनुपालन की दृष्टि से सुकर माना गया है। 4. ग्रंथकारने चौथे वर्ग में उस तीर्थ का उल्लेख किया है जिसमें प्रवेश और साधना दोनों दुष्कर है और स्वयं इस रूप में अपने ही सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। यह वर्गीकरण कितना समुचित है यह विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु इतना निश्चित है कि साधना मार्ग की सुकरता या दुष्करता के आधार पर जैन परंपरा में विविध प्रकार के तीर्थों की कल्पना की गई है और साधनामार्ग को ही तीर्थ के रूप में ग्रहण किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परंपरा में तीर्थ से तात्पर्य मुख्य रूप से पवित्र स्थल की अपेक्षा साधना विधि से लिया गया है और ज्ञान, दर्शन और चारित्र - रुप मोक्षमार्ग को ही भावतीर्थ कहा गया है, क्योंकि ये साधक के विषय - कषायरूपी मल को दूर करके समाधि रूपी आत्मशांति को प्राप्त करवाने में समर्थ हैं। भगवतीसूत्र में तीर्थ आत्मशांति को प्राप्त करवाने में समर्थ है। प्रकारान्तर से साधकों के वर्ग को भी

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