Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 366
________________ 360 ग्रंथानुसार शत्रुंजय पर्वत पर कर्पूर, अगरु, लोबान और धूप के दान से व्यक्ति मासखमण का फल प्राप्त करता है तथा वहाँ साधु को दान देने से मासखमण का फल प्राप्त होता है । शत्रुंजय पर्वत पर जिनभवन निर्माण कराने का फल बतलाने हेतु कहा है कि वैशाख मासखमण करके जो व्यक्ति पुण्डरिक पर्वत पर जिनभवन बनवाता है वह चौसठ हजार व्रतधारी युवतियों का चक्रवर्ती सम्राट होता है (98-99)। शत्रुंजय पर्वत पर जिनभवन में प्रतिमा स्थापित करने का फल बतलाने हेतु ग्रंथकार कहता है कि जिनभवन में लाख बार जाने से जो पुण्य प्राप्त होता है वह पुण्य शत्रुंजय पर्वत पर हजार दान के द्वारा प्रतिमा स्थापित करने से होता है। दान की महत्ता बतलाने हेतु ग्रंथकार कहता है कि उत्तम दान देता हुआ पुरुष अन्य भव में उत्तम पुरुष, मध्यम दान देता हुआ मध्यम पुरुष तथा हीन दान देता हुआ हीन पुरुष होता है ( 100 -102 ) । ज्ञान और जीवदया का फल निरुपण करने हेतु ग्रंथ में कहा गया है कि भोगी अर्थात् गृहस्थ व्यक्ति भी दान और तप के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करता है तथा आगम निरुपित विविध प्रकार का व्यवहार करता हुआ भाव विशुद्धि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। आगे की गाथाओं में कहा गया है कि तप, संयम, समिति और गुप्ति से युक्त व्यक्ति अवश्य ही स्वर्ग प्राप्त करता है तथा दस प्रकार के धर्म में स्थित व्यक्ति उपसर्ग रहित स्वर्ग प्राप्त करता (103-107) I ग्रंथकार कहता है कि स्वर्ग में स्थित व्यक्ति जिनेन्द्र देवों द्वारा निर्दिष्ट धर्म को स्पष्ट सुनता है तथा जो व्यक्ति जिनवचन पर श्रद्धा नहीं रखता वह स्वर्ग को प्राप्त नहीं कर सकता। जिनेन्द्र देवों द्वारा प्ररुपित वचनों पर श्रद्धा नहीं करता हुआ जो व्यक्ति तप करता है उस अज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति का वह तप तप नहीं, शारीरिक क्लेश मात्र है (108-109) I आगे की गाथाओं में ज्ञान की महत्ता बतलाते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती हो वही श्रेष्ठ ज्ञान है। शेष सभी ज्ञान कुज्ञान हैं और वे ज्ञान मोक्ष मार्ग को नष्ट करते हैं (110-112)। अदान के द्वारा दुःख और दान के द्वारा सुख की चर्चा करते हुए ग्रंथकार कहता है कि शत्रुंजय पर्वत पर चढ़ता हुआ जो पुरुष इच्छित दान देता है उसके समान दानी पुरुष लोक में दुर्लभ होता है ( 113 - 114 ) । अंत में प्रस्तुत पुस्तक के लेखन का फल बताते हुए ग्रंथकार कहता है ि

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