Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 369
________________ 363 - लौकिक तीर्थस्थलों (द्रव्यतीर्थ) की अपेक्षा आध्यात्मिक तीर्थ (भावतीर्थ) का महत्व बतलाया गया है, अपितु नदियों के जल में स्नान और उसका पान अथवा उनमें अवगाहन मात्र से संसार से मुक्ति मान लेने की धारणा का खण्डन भी किया गया है। भाष्यकार कहता है “दाह की शांति, तृषा का नाश" इत्यादि कारणों से गंगा आदि जल को शरीर के लिए उपकारी होने से तीर्थ मानते हो तो अन्य खाद्य, पेय एवं शरीर शुद्धि करने वाले द्रव्य इत्यादि भी शरीर के उपकारी होने के कारण तीर्थ माने जायेंगे किन्तु इन्हें कोई भी तीर्थरूप स्वीकार नहीं करता है" । वास्तव में तो तीर्थ वह है हम आत्मा के मल को धोकर हमें संसारसागर से पार कराता है। जैन परंपरा की तीर्थ की यह अध्यात्मपरक व्याख्या हमें वैदिक परंपरा में भी उपलब्ध होती है । उसमें कहा गया है- “सत्य तीर्थ है, क्षमा और इन्द्रिय - निग्रह भी तीर्थ है । समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, संतोष, ब्रह्मचर्य का पालन, प्रियवचन ज्ञान और धैर्य और पुण्य कर्म - ये सभी तीर्थ हैं" । " द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ जैन ने तीर्थ के जंगम तीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी किये है । " इन्हें हम क्रमश चेतनतीर्थ और जड़तीर्थ अथवा भावातीर्थ और द्रव्यतीर्थ भी कह सकते हैं। वस्तुतः नदी, सरोवर आदि तो जड़ या द्रव्य तीर्थ हैं, जबकि श्रुतविहित मार्ग पर चलने वाला संघ भाव - तीर्थ है और वही वास्तविक तीर्थ है। 9. 10. 11. देवगारि वाण तित्थमिह दाहनासणाईहिं । महू - गज्ज-भंस - वेस्सादओ वि तो तित्थभावन्नं ॥ सत्य तीर्थ क्षमा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयातीर्थ सर्वत्रार्जवमेवच ॥ दानं तीर्थ दमस्तीर्थ संतोपस्तीर्थमुच्यते ॥ ब्रह्मचर्य परं तीर्थ तीर्थ च प्रियवादिता ।। तीर्थानामपि तत्तीर्थ विशुद्धिमनसः परा ॥ भावे तित्थं संघो सुयविहियं तारओ तर्हि साहू । नाणाइतियं तरणं तरियव्वं भवसमुद्दो य ॥ - विशेषावश्यकभाष्य, 1031 - शब्दकल्पद्रुम- “तीर्थ" पृ. 626 - विशेषावश्यकभाष्य, 1032

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