Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 362
________________ 356 नारदऋषिप्रति अतिमुक्तककेवली के वक्तव्य में पुण्डरिकगिरी तीर्थ की उत्पत्ति एवंफल की चर्चा करते हुए कहा गया है कि संपूर्णपुण्डरिक शिखर देवों और मनुष्यों के द्वारा पूजा गया है तथा नित्यही उसका आश्रय लिया गया है (7)। पुण्डरिक तीर्थ की उत्पत्ति और इस तीर्थ की यात्रा एवं दान-पुण्य के फल की चर्चा करते हुए कहा गया है कि महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकर अरिहंत को देखकर धातकीखण्ड में उत्पन्न नारदऋषि दक्षिण भारत क्षेत्र के मध्य में स्थित पुण्डरिक शिखर पर देवों का प्रकाश देखते हैं और वहाँ जाकर चतुर्विध देवों के द्वारा परिवेष्ठित अतिमुक्तक ऋषि को देखकर वे आश्चर्य करते हैं। नारद ऋषि द्वारा पुण्डरिक शिखर के नाम एवं इसके पूज्य होने के कारण जानने की जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर अतिमुक्तक कुमार केवलि यह वृत्तान्त नारदऋषि को सुनाते हैं (8-16)। ग्रंथानुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का पौत्र पुण्डरिकथा, जो उनके प्रथम समवसरण में प्रतिबुद्ध हुआ (17-18)। संसारविरक्ति की प्रेरणा देते हुए कहा है कि तिर्यंचों को अधिक दुःख होता है। नरकवासियों को जो बहुत अधिक दुःख होता है और दुश्चरित्र मनुष्य को उससे भी अधिक दुःख होता है। देवताओं को भी मरने का दुःख होता है। संसार में स्थित माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पत्नी, स्वजन-संबंधी, मित्र, नौकर तथा भौग्य पदार्थ आदि सभी अनित्य हैं। इस प्रकार की धर्मचर्चा को सुनकर पुण्डरिक अपने दादा ऋषभदेव के पास धर्म में स्थित हुआ तथा सावद्ययोग पाप से निवृत्त होकर उसने साधुधर्म को अंगीकार किया (19-23)। ___ आगे की गाथाओं में पुण्डरीक अणगार द्वारा श्रुतज्ञानियों से संपूर्ण श्रुत का अध्ययन करने का उल्लेख है। ग्रंथकार चारित्रवान पुण्डरीक अणगार श्रुतागार को प्राप्त करने के पश्चात् गुरु के वचन को मान्य करके अर्द्धभरत क्षेत्र में विचरण करते हुए सौराष्ट देश में आए। __ सौराष्ट देश में विचरण करते हुए पुण्डरीक अणगार पेड़ों से ढंके हुए एक पर्वत को देखते हैं (24-28)। ग्रंथानुसार नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्तियों से गुप्त, दस प्रकार के धर्मों के पालन में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त, सत्रह प्रकार के संयम से युक्त, बारह प्रकार के तप से

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