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किस रूप में उपलब्ध एवं मान्य हैं ।
इन दृष्टान्तों में बताया गया है कि अर्णिकापुत्र ने गंगा नदी में नाव से फिसल जाने पर, स्कन्धक शिष्यों ने पापबुद्धि मंत्री द्वारा यंत्र में पील कर चूर-चूर कर दिये जाने पर, दण्ड मुनि ने बाणों से वींधे जाने पर, सुकोशल मुनि ने भूखी बाघीन द्वारा खाये जाने पर, अवंति सुकुमाल ने कुपित श्रृंगाली द्वारा खाये जाने पर, कार्तिकार्य ने शक्ति नामक शस्त्र के प्रहार से शरीर भेदन किये जाने पर, धर्मसिंह ने हजारों तिर्यंचों द्वारा खाये जाने पर, चाणक्य ने शत्रुञ्जय राजा द्वारा देह जलाये जाने पर, अभयघोष मुनि ने चण्डवेग द्वारा देह छिन्न-भिन्न कर दिये जाने पर, कौशाम्बो नगरी के बत्तीस मित्रों के समूहों ने नदी में बाढ़ आ जाने पर, आचार्य ऋषभसेन ने सिंहसेन नामक शिष्य द्वारा जलाये जाने पर, युवराज कुरुदत्त ने सिंबलिफली की तरह आग से जलते हुए, मुनि चिलातिपुत्र ने चीटियों द्वारा शरीर खाये जाने पर, मुनि गजसुकुमाल ने गीले चमड़े की तरह कीलें ठोककर शरीर भू-तल पर वींघे जाने पर और महावीर के दो शिष्यों ने मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा तेजोलेश्या से जलाये जाने पर भी समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग कर उत्तम - अर्थ को प्राप्त किया (56-87)।
समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधकों की क्षमाभावना का निरुपण करते हुए ग्रंथ में कहा गया है कि वह सर्वप्रकार के आहार का जीवनपर्यंत के लिए त्याग करता है अथवा प्रारंभ में वह पानक आहार (पेय पदार्थ) ग्रहण करता है, किन्तु बाद में वह पेय-पदार्थ के आहार को भी त्याग देता है। तीन करण, तीन योग से वह अपने अपराधों के लिए समस्त संघ से क्षमायाचना करता है तथा यह अपेक्षा करता है कि माता-पिता की तरह सभी जीव भी उसे क्षमा प्रदान करें ( 88-91)। आगे की गाथाओं में व्यक्ति को ममत्व त्याग की प्रेरणा दी गई है और कहा है कि शरीर के प्रति ममत्वरूपी दोष के कारण संसार में स्थित कितनी ही आत्माओं ने शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को अनंतबार भोगा है, इसलिए हे सुविहित ! यदि तू मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करता है तो शरीर आदि अभ्यन्तर एवं बाह्य परिग्रहों के प्रति अपने ममत्व को त्याग दे ( 92-101 ) । तत्पश्चात् समाधिमरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति किस प्रकार साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका एवं समस्त प्राणी वर्ग से क्षमायाचना करता है, इसका पुनः निरुपण किया गया है। साथ ही यह भी प्रतिपादित किया गया है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति