Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 352
________________ 346 उपांग ग्रंथों के ज्ञाता, क्षीराश्रव, मध्वाश्रव, संभिन्नस्रोत लब्धिवाले, कोष्ठ बुद्धि वाले, चारण शक्ति वाले, वैक्रिय शरीर वाले, पादगमन करने वाले, वैर-विरोध से मुक्त, कभी द्वेष नहीं करने वाले, प्रशांत मुख-मुद्रा वाले, इष्ट गुणों से युक्त, मोह का नाश करने वाले, स्नेहरूपी बंधन को नष्ट करने वाले, अहंकार से रहित, परमसुख की कामना करने वाले, मनोरम आचरण करने वाले, विषय-कषाय से मुक्त, घर-परिवार से रहित, विषय-भोगों से रहित, हर्ष, विषाद, कलह एवं शोक से रहित,हिंसादि दोष से रहित, करुणा करने वाले, स्वयंभू के समान सुंदर, अजर-अमर पद से परिवेष्ठित, सुकृत पुण्य करने वाले, काम-विकार से घृणा, चोर वृत्ति एवं संभोग से रहित तथा गुण रूपीरत्नों से विभूषित हैं (30-39)। साधुओं की चर्चा के प्रसंग में ही आगे एकगाथा में यह भी कहा गया है कि वे ही साधु उत्तम हैं जो आचार्यों को भी सम्यक् रूप से स्थिर रखते हैं। ग्रंथकार ने यहाँ इसी रूप में साधु शब्द का अर्थ ग्रहित किया है और ऐसे साधुओं की हीशरण में जाने का कथन किया है (40)। ____ केवलि प्ररुपित धर्म की शरण अंगीकार करने हेतु ग्रंथकार कहता है कि मैं साधु शरण अंगीकार कर जिनधर्म की शरण में जाता हूँ। यह जिनधर्म निश्चय ही आनंद, रोमांच, प्रपंच और कंचुक आदि को कृश करने वाला है। ग्रंथकार आगे यह भी कहता है कि जिसके द्वारा मनुष्य और देवताओं के सुखों को प्राप्त कर लिया गय है, वह सुख मुझे प्राप्त हो या न हो, किन्तु मैं मोक्षसुख प्राप्त करने वाला जिनधर्म की शरण में जाता हूँ। तदुपरान्त जिनधर्म को पापकर्मों को गलाने वाला, शुभ कर्म उत्पन्न कराने वाला, कुकर्मो का तिरस्कार करने वाला, जन्म-जरा-मरण और व्याधि आदि में साथ रहने वाला, काम और प्रमोद को शांत करने वाला, जाने - अनजाने में वैर-विरोध नहीं कराने वाला, मोक्ष दिलाने वाला, नरकगति में जाने से रोकने वाला, कामरूपी योद्धा को मारने वाला तथा दुर्गति को हरण करने वाला कहा गया है (41-48)। चारशरण की चर्चा करने के पश्चात् ग्रंथकार दुष्कृत की गर्दा के प्रसंग में कहता है कि दुष्कृत की गर्दा करने वाला अशुभ कर्मों का क्षय करता है। ग्रंथकार यह भी कहता है कि इस भव और परभव में मिथ्यात्व की प्ररुपण करने वाले, पापजनक क्रिया करने वाले, जिनवचन के प्रतिकूल आचरण करने वालों की तथा उनके पापों की मैं गर्दा अर्थात् निंदा करता हूँ। (49-50)। आगे की गाथाओं में ग्रंथकार कहता है कि मिथ्यात्व और अज्ञात से अरहंत

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