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अंग बन गया है और दैनंदिनी साधना में शरणगमन को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। यद्यपि जैन परंपरा ईश्वरीय कृपा की अवधारणा को अस्वीकार करती है फिर भी शरणप्राप्ति को व्यक्ति के जीवन में समत्व की उपलब्धि का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया। शरण प्राप्ति तभी संभव है जब जिसके प्रति शरणागत होना है उसके प्रति मन में अहोभाव उत्पन्न हो और इसके लिए प्राचीन काल में शक्रस्तव (णमोत्थुणं) और चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स) के पाठ विकसित हुए। हम देखते हैं कि वीरभद्र ने कुशलानुबंधी एवं चतुःशरण में भी मात्र शरणागति की चर्चा ही नहीं कि अपितु शरणाभूत आराध्यों के गुणों का संस्तवन भी किया है । वस्तुतः ज्ञानमार्ग और चारित्रमार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग सामान्य व्यक्तियों के लिए सहज साध्य होता है यही कारण था कि जैन परंपरा में सम्यक्दर्शन शब्द जो आत्म-साक्षी भाव या ज्ञाता दृष्टा भाव का पर्यायवाची था, वही सम्यक् दर्शन शब्द पहले तत्व श्रद्धा का और उसके पश्चात् देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा का आधार बना।
चाहे हम ईश्वरीय कृपा के सिद्धांत को स्वीकार करें या न करें, किन्तु इतना निश्चित है कि शरणप्राप्ति की अवधारणा के फलस्वरूप व्यक्ति विकलताओं से बचता है और कठिन क्षणों में उसके मन में साहस का विकास होता है, जो सामान्य जीवन में ही नहीं साधना के क्षेत्र में भीआवश्यक है।
अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रस्तुत प्रकीर्णक साधकों को अपनी साधना में स्थिर रहने के लिए एक आधारभूत संबल का कार्य करता है।
सागरमलजैन
सहयोगी - सुरेश सिसोदिया ................................ 4. (क) देविंदत्थओ-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, गाथा 310
(ख) जोइसकरण्डगंपइण्णयं, वही, भाग 1, गाथा 405 5. (क) भत्तपइण्णापइण्णयं, वही, भाग1, गाथा 172
(ख) कुशलानुबंधीअज्जयणं "चउसरणपइण्णयं", वही, भाग1, गाथा 63 (ग) सिरिवीरभद्धायरियाविरइया “आराहणापडाया" वही, भाग 2, गाथा 51 आराहणविहिं पुणभत्तपरिणाइ वण्णिमोपुव्वं। उस्सण्णंसच्वेव 3 सेसाण विवण्णणा होइ॥
- सिरिवीरभद्धायरियाविरइया “आराहणापडाया" वही, भाग 2, गाथा 51 7. The Canonical Literature of the Jainas, Page - 51-52.
सागरम