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शरण ग्रहण करता है। बौद्ध धर्म में शरण ग्रहण की यह परंपरा संघ अर्थात् समूह से प्रारभ होकर बुद्ध अर्थात् व्यक्ति पर समाप्त होती है। यद्यपि बुद्ध को एक पद के साथसाथ एक व्यक्ति भी माना जा सकता है। जैन धर्म में भी लगभग इसी के समरूप चतुःशरण की अवधारणा का विकास हुआ। जहाँ बौद्ध धर्म में संघ, धर्म और बुद्ध को शरणभूत माना गया, वहाँ जैन धर्म में अरहंत, सिद्ध, साधु और जिन द्वारा प्रतिपादित धर्म मार्गको शरणभूत माना गया है। यहाँ यहभी ज्ञातव्य है कि जैन परंपरा ने अपनी पंच परमेष्ठि की अवधारणा में से आचार्य, उपाध्याय और साधु को मूलतः एक ही “साधु" पद के अंतर्गत ग्रहित करके तीन पद को ही शरणभूत माना। फिर उसमें बौद्ध परंपरा के समान धर्म को स्थान देकर चतुःशरण की अवधारणा का विकास किया। यद्यपि इस चतुःशरण की अवधारणा के विकास का सुनिश्चित समय बता पाना तो कठिन है किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी तक जैन परंपरा में भी चतुःशरण की अवधारणा का विकास हो गयाथा।
जैन तथा बौद्ध धर्म में जो त्रिशरण माने गये हैं उनमें धर्म दोनों में ही समान है। अरहंत को किसी सीमा तक बुद्ध का ही पर्यायवाची मानकर अरहंत की शरण को बुद्ध की शरण माना जा सकता है। ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन आगम में "जिन” या “अरहंत' के लिए “बुद्ध' शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है। बौद्ध धर्म में जहाँ संघ को शरणभूत बतलाया गया वहाँ जैन धर्म में साधु को शरणभूत माना गया। यद्यपि किसी सीमा तक साधुभी संघ के प्रतिनिधि हैं फिर भी संघ की सर्वोपरिता को जोस्थान बौद्ध परंपरा में प्राप्त हुआ वह स्थान आगे चलकर जैन परंपरा में प्राप्त नहीं हो सका। यद्यपि प्राचीनकाल में तीर्थंकर भी “नमो तित्थरस्स" कहकर तीर्थ को वंदना करते थे और उसकी सर्वोपरिता मान्य की गई थी, किन्तु जैन धर्म में जब आचार्य को संघ प्रमुख मानकर संघ को उसके अधीन कर दिया गया तो संघ कास्थान निम्न हो गया
और साधु को प्रमुखता मिली। स्वयं प्रस्तुत प्रकीर्णक में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि साधु के अंतर्गत आचार्य और उपाध्याय का भी ग्रहण होता है। बौद्धों के त्रिशरण और जैनों के चतुःशरण में सबसे प्रमुख अंतर यह है कि जहाँ जैन परंपरा में सिद्धों के रूप में मुक्त आत्माओं को भी शरणभूत माना गया, वहाँ बौद्ध परंपरा में स्पष्ट रूप से निर्वाण प्राप्त व्यक्तियों को शरणभूत नहीं माना गया, यद्यपि बौद्ध परंपरा में स्पष्ट रूप से निर्वाण प्राप्त व्यक्तियों को शरणभूत नहीं माना गया, यद्यपि बौद्ध धर्म की ओर से