Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 354
________________ 348 कुशलानुबंधी चतुःशरण की तरह ही चतुःशरण प्रकीर्णक के अर्थाधिकार में कहा गया है कि समान आचार वाले साधु समूह को कुशलता के लिए चतुःशरण गमन, दुष्कृत की निंदा और सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिये । चतुःशरण गमन नामक परिच्छेद में कुशलानुबंधी चतुःशरण की तरह ही अरहंत, सिद्ध, साधु और जिनधर्म इन चारशरणों की अनुमोदना का संक्षिप्त विवेचन है (2-6)। कुशलानुबंधी चतुःशरण में विवेचित दुष्कृत गर्दा परिच्छेद की तरह भावगत समानता होते हुए भी चतुःशरण प्रकीर्णक की गाथाओं में आंशिक भिन्नता है। दुष्कृत गर्दा परिच्छेद में ग्रंथकार कहता है कि अनंत संसार में अनादि मिथ्यात्व, मोह और अज्ञान के द्वारा जो - जो कुतीर्थ मेरे द्वारा किये गये, उन सबको मैं त्रिविध रूपसे त्यागता हूँ।रतिपूर्वक जीवोत्पत्ति, जीवाघात अथवा कलह आदि जो कुछ भी मेरे द्वारा किया गया, उन सबको मैं आज त्रिविध रूप से त्यागता हूँ। वैर - परंपरा, कषाय -कलुषता और अशुभ लेश्या के द्वारा जीवों के प्रति मेरे द्वारा जो कुछ भी पाप किया गया है, उनको मैं त्यागता हूँ। इष्ट शरीर, कुटुम्ब, उपकरण और जीवों के उपघात की जनक जो भी मनोवृत्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, उन सबकी मैं निंदा करता हूँ। अनवरत पापकर्मों में आसक्त रहने के कारण जन्म-मरण के निमित्त से शरीर का ग्रहण और परित्याग करते हुए मैं जो पापों में आसक्त हुआ हूँ तो उसका त्रिविध रूप से परित्याग करता हूँ। आगे ग्रंथकार कहता है कि लोभ, मोह और अज्ञान के द्वारा सम्पत्ति को प्राप्त कर तथा उसे धारण कर जिस अशुभ स्थान को मैंने प्राप्त किया है उसको मन, वचन एवं काया के द्वारा त्यागता हूँ । जो गृह, कुटुम्ब और स्वजन मेरे हृदय को अतिप्रिय रहे किन्तु फिर भी मुझे उनका परित्याग करना पड़ा, उन सभी के प्रति अपने अपने ममत्व का परित्याग करता हूँ। आगे ग्रंथकार कहता है कि हल, ऊँखल, शस्त्र, यंत्र आदि का इन्द्रियों के द्वारा रतिपूर्वक परिभोग किया हो, मिथ्यात्व भाव से कुशास्त्रों, पापीजनों और दुराग्रहियों को उत्पन्न किया हो तो उन सबकी मैं लोक में निंदा करता हूँ। अज्ञान, प्रमाद, अवगुण, मूर्खता और पापबुद्धि के द्वारा अन्य जो कुछ भीपाप कर्म मैंने किये हों, उन सबका त्रिविध रूप से मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (7-10)। दुष्कृत गर्दा के पश्चात् सुकृत अनुमोदना की चर्चा करते हुए ग्रंथकार कहता है कि देह, स्वजन, व्यापार, धन-सम्पत्ति तथा ज्ञान और कौशल इनका जो उपयोग सद्धर्म में हुआ हो तो उन सबका मैं अनुमोदन करता हूँ। आगे ग्रंथकार कहता है कि

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