Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 357
________________ 351 यह कहा जा सकता है कि बुद्ध शब्द से भूतकालिक, वर्तमानकालिक और भविष्यत्कालिक तीनों ही प्रकार के बुद्धों का अवग्रहण हो जाता है। यहाँ यह भी प्रश्न उठाया जा सकता है कि शरण तो उनकी ग्रहण की जा सकती है जो हमारा कल्याण कर सके अथवा कल्याण मार्ग का पथ निर्देशित कर सकें। यह सत्य है कि सिद्धों में सीधे रूप से हमारा मंगल या अमंगल करने की कोई सामर्थ्य नहीं है। जैनों के चतुःशरण में भी तीन ही पद अरहंत, साधु और धर्म हमारे कल्याण के पथ का निर्देशन करने वाले होते हैं। अतः हम यह भी कह सकते हैं कि बौद्धों के त्रिशरण और जैनों के चतुःशरण उद्देश्य की समरुपता की दृष्टि से प्रायः एक-दूसरे के सन्निकट ही हैं। कुशलानुबंधी प्रकीर्णक और चतुःशरण प्रकीर्णक दोनों को चतुःशरण की जो प्राचीन परंपरा और उसका जो प्राचीन पाठ रहा है उसकी व्याख्या रूप ही कहा जा सकता है। चतुःशरण का मूल पाठ जिसे “चत्तारि मंगल पाठ” अथवा “मंगल पाठ" के नाम से आज भी जाना जाता है और जिसका आज भी जैन समाज में प्रचलन है, प्रस्तुत दोनों की प्रकीर्णक उसकी व्याख्या कहे जा सकते हैं। कुशलानुबन्धी चतुःशरण में तो इन चारों पदों के विशिष्ट गुणों के पृथक-पृथक विवेचन के साथ आलोचना को जोड़करग्रंथपूर्ण किया गया है। चतुःशरण प्रकीर्णक भी यद्यपि इसी विषय से संबंधित है फिर भी उसमें चतुःशरणभूत जो विशिष्ट पद या व्यक्ति हैं उनके गुणों का पृथक-पृथक रुपसे विवेचन नहीं किया है, किन्तु भावना की दृष्टि से दोनों ग्रंथों में समरूपता है। चतुःशरण के अंत में भी कुशलानुबंधी अथवा चतुःशरण प्रकीर्णक में आलोचना को जो स्थान दिया गया है वह आत्मविशुद्धि के निमित्त ही माना जाना चाहिए। यद्यपि वीरभद्र गणि का कुशलानुबंधी मूलतः प्राचीन परंपरागत मंगल पाठ का ही एक विस्तृत संस्करण है फिर भी इसकी विशिष्टता यह है कि यह अपने युग की तांत्रिक मान्यताओं और स्थापनाओं से सर्वथा अप्रभावित है। ज्ञातव्य है कि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में जैन परंपरा पर तंत्र का व्यापक प्रभाव आ गया था फिर भी उससे कुशलानुबंधी और चतुःशरण का अप्रभावित रहना एक महत्वपूर्ण घटना है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि जैन धर्म में हिन्दू परंपरा के प्रभाव से जो भक्ति मार्ग का विकास हुआ था और शरणप्राप्ति को साधना का एक आवश्यक अंग मान लिया गया था। यही कारण है कि चत्तारि मंगल का पाठ आवश्यक सूत्र का एक

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