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नामोल्लेख उपलब्ध है। परवर्ती प्रकीर्णकों में भक्तपरिज्ञा, कुशलानुबंधी अध्ययन, चतुःशरण और आराधनापताका ये तीन प्रकीर्णक ही ऐसे हैं जिनमें इनके रचयिता वीरभद्र का उल्लेख मिलता है। भक्त परिज्ञा और कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक में लेखक का स्पष्ट नामोल्लेख हुआ है। यद्यपि आराधनापताका प्रकीर्णक में लेखक का स्पष्ट नामोल्लेख तो नहीं हुआ है तथापि इस ग्रंथ की गाथा 51 में यह कहर कि आराधना विधि का वर्णन मैंने पहले भक्तपरिज्ञा में कर दिया है, यह स्पष्ट करता है कि यह ग्रंथ भी उन्हीं वीरभद्र के द्वारा रचित है। इस प्रकार कुशलानुबंधी प्रकीर्णक के रचयिता के रूप में हमें वीरभद्र का, जो स्पष्ट नामोल्लेख मिलता है, वस्तुतः वे वीरभद्र
कौन थे, यह जिज्ञासा की जा सकती है। जैन परंपरा में वीरभद्र को महावीर के साक्षात् शिष्य के रूप में उल्लिखित किया जाता है। किन्तु प्रकीर्णक ग्रंथों के विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह फलित होता है कि वे भगवान महावीर के समकालीन नहीं है। एक अन्य वीरभद्र का उल्लेख वि.सं. 1008 का मिलता है। संभवतः कुशलानुबंधी चतुःशरण की रचना इन्हीं वीरभद्र के द्वारा हुई हो। हमारे इस कथन की पुष्टि इस कारण भी होती है कि कुशलानुबंधी चतुःशरण का उल्लेख नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में वर्गीकृत आगमों की सूची में नहीं है।' कुशलानुबंधीचतुःशरणएवं चतुःशरण प्रकीर्णक कारचनाकाल
_ नंदीसूत्र और पाक्षिक सूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। तत्वार्थ भाष्य और दिगंबर परंपरा की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परंपरा के ग्रंथों में भी कहीं भी कुशलानुबंधी चतु:शरण प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यही फलित होता है कि छठी शताब्दि से पूर्व इस ग्रंथ का कोई अस्तित्व नहीं था। कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है। इसका तात्पर्य यह है कि कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र के परवर्ती अर्थात् छठी शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपाअर्थात् 14वीं शती से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि ग्रंथ की गाथा में ग्रंथ के रचयिता के रूप में जिन वीरभद्र का नामोल्लेख हुआ है, वे भी ग्यारहवीं शताब्दि के आचार्य रहे हैं । अतः यदि हम रचनाकाल को और सीमित करना चाहें तो यह कालावधिग्यारहवीं शताब्दि से चौदहवीं शताब्दि के मध्य कभीमानी जा सकती है।