Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith
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(18)
आसी गयसुकुमालो अल्लयचम्मं व कीलयसएहिं। धरणियले उव्विद्धो तेण वि आराहियं मरणं॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 86)
(19)
धीरपुरिस पण्णत्तं सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । धन्ना सिलायलगया साहंती उत्तमं अटुं॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 92)
(20)
नरयगई-तिरियगई-माणुस-देवत्तणे वसंतेणं । जंपत्तं सुह - दुक्खं, तं अणुरिते अणन्नमणो॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 93)
(21)
नरएसु वेयणाओ अणोवमाओ असायबहुलाओ। कायनिमित्तं पत्तो अणंतखुत्तो बहुविहाओ॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 94)
(22)
सुविहिय! अईयकाले अणंतकालं तु आगय - गएणं। जम्मण - मरणमणतं अणंतखुत्तो समणुभूयं ॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 97)
(23)
नत्थि भयं मरणसमं, जम्मणसरिसं न विज्जए दुक्खं । जम्मण - मरणायंकं छिंद ममत्तं सरीराओ॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 98)
(24)
अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवो त्ति निच्छयमईओ। दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 99)
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