Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith
________________
(25)
(26)
(27)
(28)
(29)
(30) (i)
(31)
(ii)
जावइयं किंचि दुहं सारीरं माणसं च संसारे । पत्तं अनंतखुत्तो कायस्स ममत्तदोसेणं ॥
(मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 404)
तम्हा सरीरमाई अब्भिंतर बाहिर निरवसेसं । छिंद ममत्तं सुविहिय ! जइ इच्छासि मुच्चिउ दुहाणं ॥ ( मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 405)
आयरिय उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल गणे य । साओ को वि सव्वे तिविहेण खामेमि ॥
( मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 336 ) सव्वस्स समणसंघस्स भगवओ अंजलि करे सीसे । सव्वं खमांवइत्ता खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥
( मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 337 ) धीधणियबद्धच्छा अणुत्तरविहारिणो सुहसहाया । साहिंति उत्तिम सावयदाढंतरगया वि ।
333
( आराधनापताका प्रकीर्णक, गाथा 741 ) अन्न कम्मं खवे बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं तहिं गुत्तो खवे ऊसासमेत्तेणं ॥
( मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 135 ) (महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 101 ) (तित्थोगाली प्रकीर्णक, गाथा 1223)
जं अन्नाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं तहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥
तं
( प्रवचनसार, गाथा 3 1 38) अट्ठविहं कम्मरयं बहुएहि भवेहिं संचिअं जम्हा । तवसंजमेण धुव्वइ तम्हा तं भावओ तित्थं ॥
(आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1081 )
Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398