Book Title: Prakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 346
________________ 340 9. चउसरणपइण्णयं पइण्णयसुत्ताइं भाग - 1 एवं 2 में कुल 27 प्रकीर्णक एवं 5 कुलक प्रकाशित हैं । इनमें चतुःशरण नामक दो प्रकीर्णक, आतुरप्रत्याख्यान नामक तीन प्रकीर्णक और आराधना नामक सात प्रकीर्णक एवं एक कुलक है । एक नाम से प्रकाशित एकाधिक प्रकीर्णकों में से आराधनापताका, चतुःशरण और आतुर प्रत्याख्यान को यदि एकएक ही माना जाये तो कुल अठारह प्रकीर्णक होते हैं तथा दोनों भागों में अप्रकाशित अंगविज्जा, अजीवकम्प, सिद्धपाहुड एवं जिनविभक्ति ये चार नाम जोड़ने पर प्रकीर्णकों की कुल संख्या 22 होती है। यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और अध्यात्मपरक विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें तो कुछ प्रकीर्णक आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन प्रतीत होते हैं। प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों से भी प्राचीन हैं।' प्रकीर्णक नाम से वर्गीकृत प्रायः सभी सूचियों में चतुःशरण प्रकीर्णक को स्थान मिला है। जैसा कि हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं कि चतुःशरण प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य जिनप्रभकृत विधिमार्गप्रपा में उपलब्ध होता है। आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रंथ सिद्धान्तागमस्तव की विशाल राजकृत वृत्ति में भी चतुःशरण का स्पष्टउल्लेख मिलताहै। इसप्रकारजहांनन्दीसूत्रएवंपाक्षिकसूत्रकी सूचियोंमेंचतुःशरण __1. यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजयजी ने प्रस्तुत ग्रंथ में अंगविद्या को स्थान नहीं दिया है किन्तु "अंगविद्या", उन्हीं के द्वारा संपादित होकर प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुकी है। 2. डॉ.सागरमल जैन-ऋषिभाषित एक अध्ययन 3. वन्दे मरणसमाधिप्रत्याख्याने “महा - ऽऽतुरो' प्रपदे। संस्तार-चन्द्रवेध्यक - भक्तपरिज्ञा - चतुःशरणम्॥32॥ वीरस्तव- देवेन्द्रस्तव - गच्छाचारमपिचगणिविद्याम्। द्वीपाब्धिप्रज्ञप्ति तण्डुलवैतालिकंचनमुः॥33॥ उद्धत् - H.R.Kapadia, The Canonical Literature of the Jainas,Page 51

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