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में ही मिलता है । अतः रचनाकाल के संदर्भ में हम अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि (यह ग्रंथ ईसा की छठीं शताब्दी के पश्चात् और ईसा की तेरहवीं शताब्दी से पूर्व कभी रचा गया है ।) इस कालावधि को थोड़ा और सीमित किया जा सकता है, जिस सीमा तक हमें जानकारी उपलब्ध हो सकी है उस आधारपर हम कह सकते हैं कि भाष्य और चूर्णी साहित्य में भी कहीं भी इस ग्रंथ का निर्देश नहीं मिलता है। भाष्य और चूर्णी साहित्य भी छठीं -सातवीं शताब्दी में रचित माना जाता है । अतः यह कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ सातवीं शताब्दी के पश्चात् तथा तेरहवीं शताब्दी के पूर्व कभी रचा गया है।
ग्रंथ की विषयवस्तु के आधार पर यदि हम इसका रचनाकाल निर्धारित करना चाहें तो ज्ञात होता है कि इस ग्रंथ की कुल 122 गाथाओं में से 48 गाथाएँ हमें चन्द्रवेध्यक, महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णकों तथा दिगम्बर एवं यापनीय परंपरा द्वारा मान्य भगवती आराधना आदि ग्रंथों में उपलब्ध हुई हैं और ये सभी ग्रंथ निश्चित ही सातवीं शताब्दी के पूर्व के हैं । अतः यह मानना चाहिए कि संस्तारक प्रकीर्णक सातवीं शताब्दी के बाद की रचना है। जैसा की हम पूर्व में ही चर्चा कर चुके हैं, वीरभद्र ने अपने द्वारा रचित प्रकीर्णकों में स्पष्ट रूप से कर्ता के रूप में अपना नामोल्लेख किया है और हम यह भी पाते हैं कि दसवीं शताब्दी के पश्चात् जो भी ग्रंथ रचे गये है उनमें उनके कर्ता का स्पष्ट उल्लेख हुआ है इस आधार पर हमें ऐसा लगता है कि यह ग्रंथ दसवीं शताब्दी से पूर्व रचित है । कर्ता के रूप में अपना स्पष्ट नामोल्लेख करने की परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में आचार्य हरिभद्र के काल से तो है ही, जबकि प्रस्तुत ग्रंथ में कर्ता के नामोल्लेख का अभाव है। इससे प्रतीत होता है कि यह ग्रंथ आचार्य हरिभद्र से भी पूर्ववर्ती रहा हो और ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि यह ग्रंथ भाष्य एवं चूर्णियों के रचनाकाल ( 6ठी - 7वीं शताब्दी) के पश्चात् तथा हरिभद्र ( 8वीं शताब्दी) के पूर्व कभी रचा गया होगा। इस आधार पर हम इस ग्रंथ के रचनाकाल को ईसा की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध या 8वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कहीं मान सकते हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हमें कोई भी ऐसा अर्न्तबाह्य साक्ष्य उपलब्ध
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"देवंदत्थय - तंदुलवेयालिय...... आउरपच्चक्खाण - संथारय- चंदा ......... गच्छायारं - इच्चाइपइण्णगाणि इक्किक्केण निव्वीएण
विज्झयं. वच्चति । "