________________
305 मरण से डरता है और जो मरण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य नहीं जानते। व्यापक जीवन में जीना और मरना दोनों का अन्तर्भाव होता है जिस तरह उन्मेष और निमेष दोनों क्रियाएँ मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी होती है।
भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही नहीं वरन् उसमें जीवन की कला के साथ मरण की कलापर भी विचार किया गया है। नैतिक चिंतन की दृष्टि से किस प्रकार जीवन जीना चाहिये यहीं महत्वपूर्ण नहीं है वरन् किस प्रकार मरना चाहिए यह भी महत्वपूर्ण है। भारतीय नैतिक चिंतन के अनुसार मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी जीवन का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना होती है वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है (18। 5-6) संस्तारक प्रकीर्णक में उपलब्ध स्कन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना करने वाला महान साधक जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने सहचारी चार सौ निन्यानवे साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृतपान कराया, वही साधक स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने साधनापथ से विचलित हो गया। वैदिक परंपरा में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने महान साधक को भी मरण-वेला में हरिण पर आसक्ति रखने के कारण पशु-योनि को प्राप्त होना पड़ा। उपरोक्त कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते हैं। मृत्यु इस जीवन की साधना का परीक्षा काल है। मृत्यु इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अंतिम अवसर और भावी जीवन की कामना का आरंभ बिन्दु है। इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी अंग है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुंदर बनाना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं। अतः जैन दर्शन पर लगाया जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित नहीं माना जा सकता । वस्तुतः समाधिमरण पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं उनका संबंध समाधिमरण से न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने समाधिमरण और आत्महत्या के वास्तविक अंतर
35. परमसखामृत्यु, पृ. 19