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आगम साहित्य : मनन और मीमांसा में, देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा एवं आराधना पताका के कर्ता के रूप में वीरभद्र का उल्लेख किया है परंतु तत्सम्बन्धी प्रमाण की कोई चर्चा नहीं की है।'
जैन परंपरा में वीरभद्र के दो उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रथम वीरभद्र तो महावीर के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं किन्तु इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं है। द्वितीय वीरभद्र का उल्लेख वि.सं. 1008 का प्राप्त होता है। हो सकता है वीरस्तव द्वितीय वीरभद्र की ही रचना हो। वीरस्तव में ग्रन्थकर्ता ने कहीं पर भी अपने नाम का संकेत नहीं किया है। इसके पीछे ग्रंथकार की यह भावना रही होगी कि महावीर के विभिन्न नामों से मैं जो स्तुति कर रहा हूँ वह सर्वप्रथम मेरे द्वारा तो की नहीं गई है। अनेक पूर्वाचारों एवं ग्रंथकारों द्वारा इन नामों से महावीर की स्तुति की जा चुकी है। इस स्थिति में मैं ग्रंथ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ? इसमें ग्रंथकार की विनम्राता एवं प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वैसे भी प्राचीन स्तर के आगम ग्रंथों में कर्ता का नामोल्लेख नहीं पाया जाता है अतः यह मानाजा सकता है कि वीरस्तवभी प्राचीन स्तर काग्रंथ है।
___ जहाँ तक वीरस्तव के रचनाकाल का प्रश्न है, नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण प्राप्त होता है उसमें वीरस्तव का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।
इसके पश्चात् दिगम्बर परंपरा की तत्वार्थ की टीकाओं एवं यापनीय परंपरा के मूलाचार, भगवती आराधना आदि में भी वीरस्तव का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इससे यह तो स्पष्ट है कि यह छठी शताब्दी के पूर्व में अस्तित्व में नहीं था। वीरस्तव प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा नामक ग्रंथ में प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट है कि वीरस्तव प्रकीर्णक नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र अर्थात् छठीं शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रथा 14वीं शताब्दी के पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। पुनः यदि हम अनेक प्रकीर्णकों के रचयिता के समान इस प्रकीर्णक के कर्ता भी वीरभ्रद को माने तो उनका काल 10वीं शताब्दी निश्चित है। ऐसी स्थिति में वीरस्तव का रचनाकाल भी ईस्वी सन् 10वीं शताब्दी होना चाहिए किन्तु वीरभद्र वीरत्थओ के रचयिता हैं इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
8. . (अ) जैन आगमसाहित्य : मनन और मीमांसापृ. 400
(a) The Canonical Literature of the Jainas Page 51-52 9. The Canonical Literature of the Jainas Page-52