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अतः इस बारे में विशेष अधिकार पूर्वक कह पाना बहुत मुश्किल है। यहाँ पर तो हम इतना ही कह सकते हैं। वीरस्तव के रचनाकाल के संबंध में एक अनुमान यह किया जा सकना है, सर्वप्रथम आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के भावना अध्ययन में और कल्पसूत्र में महावीर के तीन गुण निष्पन्न नामों का उल्लेख हुआ है। जब हिन्दू पुराणों में विष्णु आदि के सहस्त्र नाम देने की परंपरा का विकास हुआ तो जैनों में भी उसका अनुसरण करके जिन सहस्त्रनाम लिखे गये। सबसे प्राचीन जिनसहस्त्रनाम जिनसेन लगभग 9वीं शती का है। प्रस्तुत कृति में मात्र 26 नाम हैं- इससे ऐसा लगता है कि, यह कृति उसके पूर्व ही कभी लिखी गई हो। सुज्ञजन इस बारे में विशेष एवं विवेचन खोजकर इस कमी को पूरा करेंगे।
विषयवस्तु : वीरस्तव प्रकीर्णक में कुल 43 गाथाएँ हैं। इन गाथाओं में श्रमण भगवान महावीर के 26 नामों की व्युत्पत्तिपरक स्तुति प्रस्तुत की गई है। ग्रंथकार ने महावीर को अरुह, अरिहंत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परमकारुणिक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, पारग, त्रिकालविज्ञ, नाथ, वीतराग, केवलि, त्रिभुवन गुरु, सर्व, त्रिभुवन में श्रेष्ठ, भगवान, तीर्थंकर, शकेन्द्र द्वारा नमस्कृत, जिनेन्द्र, वर्धमान, हरि, हर, कमलासन और बुद्ध विशेषण देकर उनका गुण कीर्तन किया है। (गाथा 1-4) इन छब्बीस नामों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ निम्न प्रकार किया है
(1) अरुह - महावीर को जन्म मरण रूपी संसार के बीज को अंकुरित करने वाले कर्मों को ध्यान रूपी ज्वाला में जलाकर संसार में पुनः उत्पन्न नहीं होने कारण 'अरुह' कहागया है। (गाथा 5)
(2) अरिहंत - घोर उपसर्ग, परिषह एवं कषायों का नाश करने वाले, वंदन स्तुति, नमस्कार, पूजा, सत्कार एवं सिद्धि के योग्य तथा देव, मनुष्य एवं इन्द्रों से पूजित होने के कारणअरिहंत कहा गया है। (गाथा 6-8)
(3) अरहंत - समस्त परिग्रह से रहित (अरह), जिससे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है (अरहम्), श्रेष्ठ ज्ञान के द्वारा निज स्वरूप को प्राप्त, मनोहर एवं अमनोहर शब्दों से अलिप्त, मन, वचन, शरीर से आचार से आचार में रमे हुए, श्रेष्ठ देवों एवं इन्द्रों से पूजित एवं मोक्षद्वार पर स्थित होने से महावीर को अरहंत कहा गया है। (गाथा 9-12)
(4) देव नाम - सिद्धिरूपी स्त्री से क्रीड़ा करने वाले, मोह रूपी शत्रु के