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सबसे पहले उन्हीं की स्तुति लिखी गई, जो आज भी सूत्रकृतांग सूत्र के छठे अध्याय "वीरत्थुई' के रूप में उपलब्ध होती हैं । संभवतः जैन परंपरा में स्तुतिपरक साहित्य का प्रारंभ इसी “वीरत्थुइ” से है। वस्तुतः इसे भी स्तुति केवल इसी आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें महावीर के गुणों एवं उनके व्यक्तित्व के महत्व को निरुपित किया गया है। किन्तु इसकी विशेषता यह है कि इसमें स्तुति कर्ता किसी प्रकार की याचना नहीं करता। इसके पश्चात् स्तुतिपरक साहित्य के रचनाक्रम में हमारे विचार से “णमोत्थुणं", जिसे "शक्रस्तव” भी कहा जाता है, निर्मित हुआ होगा, जिसमें किसी अर्हत् या तीर्थंकर विशेष का नाम निर्देश किये बिना सामान्य रूप से अर्हतों की स्तुति की गई है। जहाँ सूत्रकृतांग की वीरत्थुइ पद्यात्मक है वहाँ यह गद्यात्मक है। दूसरी बात इसमें अर्हन्त को एक लोकोत्तर पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है जबकि वीरस्तुति में केवन कुछ प्रसंगों को छोड़कर सामान्यतया महावीर को लोक में श्रेष्ठतम व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गयाहै, लोकोत्तर रूप में नहीं। यद्यपिआचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित जीवनवृत्त की अपेक्षा भी इसमें लोकोत्तर तत्व अवश्य प्रविष्ट हुए हैं।स्तुति कारक साहित्य में उसके पश्चात् देवेन्द्रस्तव नामक प्रकीर्णक कास्थान आता है जिसके प्रारंभिक एवं अंतिम गाथाओं में तीर्थंकरों की स्तुति की गई है।शेष ग्रंथ इन्द्रों एवं देवों के विवरणों से भरा पड़ा है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें भी ग्रंथकार ने तीर्थंकर और इन्द्रादि देवताओं से किसी भी प्रकार की भौतिक कल्याण की कामना नहीं की है। केवल ग्रंथ की अंतिम गाथा में कहा गया है कि सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें। देवेन्द्रस्तव की प्रथम गाथा में ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभ एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर को नमस्कार किया गया है । अतः यह स्पष्ट है कि ग्रंथकार ऋषिपालित के समक्ष 24 तीर्थंकरों की अवधारणा उपस्थित थी। इस प्रकार स्तुतिपरक साहित्य के विकासक्रम में ‘देवेन्द्रस्तव' पर्याप्त प्राचीन सिद्ध होता है। स्तुतिपरक साहित्य में इसके पश्चात् 'चतुर्विशतिस्तव' (लोगस्स - चोवीसत्थव) का स्थान आता है। लोगस्स का निर्माण तो चौबीस तीर्थंकर की अवधारणा के बाद ही हुआ होगा। वीरत्थुइ, नमुत्थुणं और देवेदत्थओ इन तीनों ग्रंथों की विशेषता यह है कि इनमें भक्त यारचनाकार अपने
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सूत्रकृतांगसूत्र- मुनि मधुकर - छठां वीरत्थुइं अध्ययन। देवेन्द्रस्तव- गाथा 3101 देवेन्द्रस्तव-प्रकीर्णक - गाथा।